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पंचसंग्रह : १०
करने पर प्रत्येक के आठ-आठ भंग होते हैं, तिर्यच पंचेन्द्रिय योग्य बांधने पर छियालीस सौ आठ और इतने ही भंग अर्थात् छियालीस सौ आठ भंग मनुष्य योग्य बंध करने पर होते हैं । सब मिलाकर उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान के बानवै सौ चालीस (६२४०) भंग होते हैं ।
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तीर्थंकर नाम सहित देवगति योग्य उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान मिथ्यादृष्टि को नहीं होता है। क्योंकि तीर्थंकरनाम का बंध सम्यक्त्व रूप हेतु द्वारा होता है और मिथ्यादृष्टि को वह हेतु नहीं है । इसलिये देवगति योग्य उनतीस प्रकृतियों का बंध मिथ्यादृष्टि को होता नहीं है । किन्तु तिर्यंच या मनुष्य प्रायोग्य उनतीस प्रकृतियों के बंधक चारों गति के जीव हैं । चारों गति के जीव यथायोग्य रीति से तिर्यंच या मनुष्य गति योग्य उनतीस प्रकृतियों का बंध करते हैं । मात्र विकले - न्द्रिय योग्य उनतीस प्रकृतियों के बंधक मनुष्य और तिर्यंच ही होते हैं, देव या नारक नहीं । देव या नारक मात्र संख्यात वर्ष की आयु वाले पर्याप्त गर्भज तिथंच या पर्याप्त गर्भज मनुष्य गति योग्य ही बंध करते हैं । अन्य कोई योग्य बंध नहीं करते हैं । मात्र देव बादर पर्याप्त पृथ्वी, बादर पर्याप्त अप् और बादर पर्याप्त प्रत्येक वनस्पति काय योग्य बंध करते हैं । तथा
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पर्याप्त द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और तियंच पंचेन्द्रिय योग्य बंध करने पर उद्योत नामकर्म के साथ नामकर्म के तीस प्रकृतिक बंधस्थान का बंध होता है । उसमें पर्याप्त द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय योग्य तीस प्रकृतियों को बांधने पर प्रत्येक के आठ-आठ भंग तथा तिर्यंच पंचेन्द्रिय योग्य बंध करने पर छियालीस सौ आठ भंग होते हैं और कुल मिलाकर तीस प्रकृतिक बंधस्थान के छियालीस सौ बत्तीस (४६३२) भंग होते हैं ।
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तीर्थंकरनाम सहित मनुष्यगतियोग्य तीस प्रकृतिक एवं आहारकद्विक सहित देवगतियोग्य तीस प्रकृतिक ये दो बंधस्थान मिथ्यादृष्टि
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