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________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६ २५५ के बंधयोग्य ही नहीं हैं। क्योंकि तीर्थकरनाम का बंधकारण सम्यक्त्व है और आहारकद्विक का संयम कारण है परन्तु ये दोनों कारण मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में नहीं होने से तीर्थंकरनाम सहित मनुष्य प्रायोग्य तीस प्रकृतिक बंधस्थान या आहारकद्विक सहित देव प्रायोग्य तीस प्रकृतिक बंधस्थान मिथ्यादृष्टि को नहीं होता है। इस बंधस्थान के बंधक भी उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान के बंधक की तरह चारों गति के जीव हैं। मात्र विकलेन्द्रिय योग्य तीस प्रकृतियों के बंधक मनुष्य और तिर्यंच हैं। __इस प्रकार मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में बंधक भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा छह बंधस्थान होते हैं और इन तेईस प्रकृतिक आदि बंधस्थानों की भंग संख्या इस प्रकार है चउ पणवीसा सोलस नव चत्ताला सयाय बाणउइ । बत्तीसुत्तर छायाल सया मिच्छस्स बंधविही ॥ अर्थात् तेईस प्रकृतिक बंधस्थान के चार, पच्चीस प्रकृतिक के पच्चीस, छब्बीस प्रकृतिक के सोलह, अट्ठाईस प्रकृतिक के नौ, उनतीस प्रकृतिक के बानवै सौ चालीस और तीस प्रकृतिक के छियालीस सौ बत्तीस भंग होते हैं । इनका कुल जोड़ तेरह हजार नौ सौ छब्बीस (१३६२६) होता है। यहां यह विशेष जानना चाहिये कि नामकर्म के आठ बंधस्थानों के कुल भंग तेरह हजार नौ सौ पैंतालीस है। किन्तु उनमें से तीर्थकरनामकर्म के साथ देवगतियोग्य उनतीस प्रकृतिक स्थान के आठ भंग, तीर्थकरनाम सहित मनुष्यगतिप्रायोग्य तीस प्रकृतिक बंधस्थान के आठ भंग, आहारकद्विक सहित देवगतियोग्य तीस प्रकृतिक का एक भंग, आहारकद्विक और तीर्थंकरनाम सहित देवगतियोग्य इकत्तीस प्रकृतिक बंधस्थान का एक भंग और यशःकीर्ति रूप एक प्रकृतिक बंधस्थान का एक भंग, कुल उन्नीस भंगों को कम करने पर मिथ्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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