SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 293
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५० पंचसंग्रह : १० कि मिथ्यात्व गुणस्थान में वैक्रियमिश्र, औदारिकमिश्र और कार्मण इन प्रत्येक योग में अनन्तानुबंधि के उदय बिना की सात के उदय की एक, आठ के उदय की दो बौर नौ के उदय की एक इस प्रकार चार चौबीसी नहीं होती हैं। . उनमें सात के उदय में सात पद और आठ के उदय की दो चौबीसी होने से आठ को दो से गुणा करने पर सोलह पद तथा नौ के उदय में नौ पद लेना चाहिये। जो सब मिलाकर बत्तीस पद होते हैं । ये बत्तीस पद वैक्रियमिश्र आदि तीन योगों में नहीं होते हैं । इसलिये बत्तीस के साथ तीन का गुणा करने पर छियानवै होते हैं । ये छियानवै पद चौबीसियों के आश्रित हैं। अतएव छियानवै का चौबीस से गुणा करने पर (६६४२४=२३०४) तेईस सौ चार पद होते हैं। इसी प्रकार शेष सासादन आदि गुणस्थानों के स्थाप्य अंकों का भी अपने-अपने ध्रवपदों के साथ गुणा करना चाहिये । सासादन संबन्धी पूर्वोक्त आठ का बत्तीस से गुणा करने पर दो सौ छप्पन होते हैं। अविरतसम्यग्दृष्टि संबन्धी बत्तीस का अपने साठ ध्रुवपदों के साथ गुणा करने पर उन्नीस सौ बीस, प्रमत्तसंयत संबन्धी सोलह का अपने चवालीस ध्रवपदों के साथ गुणा करने पर सात सौ चार और अप्रमत्तसंयत संबन्धी आठ का अपने चवालीस ध्रुवपदों के साथ गुणा करने पर तीन सौ बावन होते हैं। ये सभी त्याज्य पद जोड़ करने पर पचपन सौ छत्तीस (५५३६) होते हैं। उनको पूर्व में बताई गई गुणस्थानों के पदों की पूर्ण संख्या में से कम करने पर गुणस्थानों में संभव पदों की कुल संख्या पंचानवै हजार सात सौ सत्रह (९५७१७) होती है। इस प्रकार से मोहनीय कर्म संबन्धी पूर्व में नहीं कहे गये विशेष का विवरण जानना चाहिये । अब नामकर्म संबन्धी विशेष का प्रतिपादन करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy