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________________ पंचसंग्रह : १० इन्हीं तेरह जीवस्थानों में गोत्रकर्म के नीचगोत्र के उदय से होने वाले तीन भंग होते हैं । जो इस प्रकार हैं- (१) नीचगोत्र का बंध, नीचगोत्र का उदय, नीचगोत्र की सत्ता । यह भंग तेज और वायुकायिक जीवों में होता है अथवा तेज और वायुकाय में से निकलकर अन्य तिर्यंचों में उत्पन्न हुओं को जब तक उच्चगोत्र का बंध न हो, तब तक होता है । (२) नीच का बंध, नीच का उदय, नीच उच्च की सत्ता, (३) उच्चगोत्र का बंध, नीचगोत्र का उदय, दोनों की सत्ता । इन तीन के अतिरिक्त अन्य कोई भंग सम्भव नहीं है । क्योंकि इन तेरह जीवस्थानों में उच्चगोत्र का उदय नहीं होता है । ३१२ संज्ञी पंचेन्द्रिय में पूर्व में जिस प्रकार से गुणस्थानों में वेदनीय और गोत्रकर्म के भंग कहे हैं, वे सभी भंग समझना चाहिये । क्योंकि संज्ञी में सभी गुणस्थान सम्भव हैं । 1 अब आयुकर्म के भंगों का निर्देश करते हैं । जीवस्थानों में आयुकर्म के बंधादि स्थान तिरिउदए नव भंगा जे सव्वे असणि पज्जत्ते । नारयसुरचजभंगायर हिया इगिविगल दुविहाणं ॥ १३३॥ असणि अपज्जते तिरिउदए पंच जह उ तह मणुए । मणपज्जत्ते सव्वे इयरे पुण दस उ पुव्वता ॥ १३४ ॥ , शब्दार्थ - तिरिउदय - तिर्यंचायु के उदय के, नवभंगा-नो भंग, जेजो, सब्वे - सभी असणि पज्जसे- असंज्ञी पर्याप्त में नारयसुरचउमंगायरहिया - नारक और देव आयु के चार भंगों से रहित, इगिविगलदुबिहाणंदोनों प्रकार के ( पर्याप्त अपर्याप्त ) एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों में । असणि अपज्जत्ते - अपर्याप्त असंज्ञी में, तिरिउदए - तियंचायु के उदय में, पंच-पांच, जह - जैसे, उ - और, तह – उसी तरह, मणुए—मनुष्य में, मणपज्जते – संज्ञी पर्याप्त में, सव्वे सभी, इयरे - इतर अपर्याप्त में, पुणपुनः, दस-दस, उ — और, पुष्बुत्ता - पूर्वोक्त । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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