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सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १३२
३११ दोनों के पाँच का बंध, पाँच का उदय, पाँच की सत्ता रूप एक-एक स्थान होता है।
दर्शनावरण कर्म के नौ का बंध, चार का उदय, नौ की सत्ता; नौ का बंध, पाँच का उदय, नौ की सत्ता ये दो भंग होते हैं । क्योंकि इन तेरह जीवस्थानों में आदि के दो गुणस्थान होते हैं। जिससे पूर्वोक्त भंग उनमें संभव हैं । संज्ञी अपर्याप्त में चौथा गुणस्थान होता है, जिससे उसे दर्शनावरण कर्म के अन्य भंग भी घटित होते हैं, परन्तु वे करण-अपर्याप्त के होते हैं और यहाँ लब्धि-अपर्याप्त की विवक्षा है। जिससे पूर्वोक्त भंग ही संभव हैं।
अब वेदनीय ओर गोत्र कर्म के भंगों का निर्देश करते हैं । वेदनीय और गोत्र कर्म के बंधादि स्थान
तेरससु वेयणीयस्स आइमा होंति भंगया चउरो। निच्चुदय तिणि गोए सवे दोण्हपि सण्णिस्स ॥१३२॥ शब्दार्थ-तेरससु-तेरह जीवस्थानों में, वेयणीयस्सवेदनीय कर्म के, आइमा-आदि के, होंति-होते हैं, भंगया-भंग, चउरो-चार, निच्चुदयनीच के उदय वाले, तिण्णि-तीन, गोए-गोत्र के, सब्वे-सभी, वोण्हंपिदोनों के, सण्णिस्स-संज्ञी पंचेन्द्रिय के ।
गाथार्थ-वेदनीयकर्म के आदि के चार भंग और गोत्रकर्म के नीचगोत्र के उदय वाले तीन भंग तेरह जीवस्थानों में होते हैं तथा संज्ञी में दोनों कर्म के सभी भंग होते हैं।
विशेषार्थ-संज्ञी पर्याप्त के सिवाय शेष तेरह जीवस्थानों में वेदनीयकर्म के आदि के चार भंग होते हैं जो इस प्रकार हैं ... १. असाता का बंध, असाता का उदय, साता-असाता दोनों की सत्ता, २. असाता का बंध, साता का उदय, दोनों की सत्ता, ३. साता का बंध, असाता का उदय, दोनों की सत्ता, ४. साता का बंध, साता का उदय, दोनों की सत्ता ।
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