________________
३१०
पंचसंग्रह : १०
और उनके भंगों के सिवाय शेष समस्त उदयस्थान और भंग पंचेन्द्रिय में जानना चाहिए |
अब सत्तास्थानों का निरूपण करते हैं- एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय में अनुक्रम से पाँच-पाँच और बारह सत्तास्थान होते हैं । एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों में वे इस प्रकार हैं- बानवे, अठासी, छियासी, अस्सी, अठहत्तर प्रकृतिक तथा पंचेन्द्रिय में तेरानव प्रकृतिक आदि बारह सत्तास्थान होते हैं और उनका पूर्व में जिस प्रकार से निर्देश किया गया है, तदनुसार यहाँ भी जानना चाहिए ।
अब जीवस्थानों में बंध, उदय और सत्तास्थानों का प्रतिपादन करने के लिए पहले ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय के बंधादि स्थानों का निर्देश करते हैं ।
ज्ञानावरण-दर्शनावरण, अन्तराय कर्म के बंधादि स्थान नाणंतरायदंसण बंधोदयसंत भंग जे मिच्छे ।
ते तेरसठाणेसु सष्णिम्मि गुणासिया सव्वे ॥१३१॥
शब्दार्थ - नाणंतराय दंसण-ज्ञानावरण, अन्तराय और दर्शनावरण, बंधोदय संत-बंध, उदय और सत्तास्थान, भंग-भंग, जे - जो, मिच्छेमिथ्यात्व गुणस्थान में, ते वे, तेरसठाणेसु -- तेरह जीवस्थानों में, सणिम्मिसंज्ञी में, गुणासिया - गुणस्थानाश्रित, सब्वे - सभी ।
-
गाथार्थ - ज्ञानावरण, अन्तराय और दर्शनावरण कर्म के बंध, उदय और सत्ता के जो भंग मिथ्यात्व गुणस्थान में कहे हैं वे सभी तेरह जीवभेदों में होते हैं और संज्ञी में गुणस्थानाश्रित सभी जानना चाहिए ।
विशेषार्थ - ज्ञानावरण, अन्तराय की पाँच-पाँच उत्तरप्रकृतियाँ हैं अतः पाँच प्रकृतिक बन्ध, उदय और सत्ता जो मिथ्यादृष्टि को कही हैं, वही सब पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय सिवाय शेष तेरह जीवस्थानों में जानना चाहिए | इसका कारण यह है कि इन दोनों कर्मों का ध्रुवबंध, ध्रुव उदय और ध्रुवसत्ता होने से ज्ञानावरण और अन्तराय इन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org