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सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १३३,१३४
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गाथार्थ-तिर्यंचायु के उदय में जो नौ भंग कहे हैं, वे सभी असंज्ञी पर्याप्त में होते हैं तथा पर्याप्त-अपर्याप्त एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय में नारक और देव के चार भंगों रहित शेष पाँच भंग होते हैं।
तिर्यंचायु के उदय में जैसे पहले पाँच भंग कहे हैं, उसी प्रकार पाँच भंग असंज्ञी अपर्याप्त तिर्यंच और मनुष्य में होते हैं। पर्याप्त संज्ञो में सभी भंग होते हैं और इतर---अपर्याप्त संज्ञी में पूर्वोक्त दस भंग होते हैं।
विशेषार्थ-तिर्यचों को आयु के बंधकाल के पूर्व का एक, आयु के बंधकाल के चार और बंधोत्तरकाल के चार इस प्रकार जो नौ भंग पूर्व में कहे हैं, वे सभी असंज्ञी पंचेन्द्रियों में होते हैं। क्योंकि वे चारों गति के योग्य बंध करते हैं । ___उक्त नौ भंगों में से नारक और देव आयु के बंधकाल का एक-एक और बंधोत्तरकाल का एक-एक, कुल चार भंगों को छोड़कर शेष पाँच भंग पर्याप्त-अपर्याप्त एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों में होते हैं। क्योंकि एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय देव और नरक आयु का बंध नहीं करते हैं परन्तु मनुष्य और तिर्यंच आयु का ही बंध करते हैं। जिससे बंधकाल से पूर्व का एक, मनुष्य और तिर्यंच आयु के बंधकाल का एक-एक और उन दोनों आयु के बंधोत्तरकाल के बाद का एक-एक: इस प्रकार कुल पाँच भंग ही होते हैं।
तिर्यंचायु का उदय रहते पूर्व में जो एकेन्द्रिय आदि में पाँच भंग कहे हैं, वही अन्यूनातिरिक्त पाँच भंग असंज्ञी अपर्याप्त तिर्यंच और असंज्ञी मनुष्य में भी समझना चाहिये । क्योंकि अपर्याप्त असंज्ञी तिर्यच और संमूच्छिम मनुष्य मनुष्यायु और तिर्यंचायु का ही बंध करते हैं।
संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त में आयु के अट्ठाईस भंग होते हैं। क्योंकि वे चारों गति में होते हैं और चारों गतियोग्य बंध करते हैं।
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