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________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६, १०० १६६ तीर्थंकर नाम की ( निकाचित) सत्ता होती ही नहीं है । क्योंकि ( निकाचित) तीर्थंकर नाम की सत्ता वाला कोई भी जीव तिर्यंचगति में उत्पन्न नहीं होता है और छियासी प्रकृतिक सत्तास्थान का विचार ऊपर कहे अनुसार यहां भी समझ लेना चाहिये । इस प्रकार अठाईस प्रकृतियों के बंधक के आठ उदयस्थानाश्रयी उन्नीस सत्तास्थान होते हैं । उनतीस और तीस प्रकृतियों के बंध में नौ-नौ उदयस्थान और सात-सात सत्तास्थान होते हैं । जिनका विवरण इस प्रकार है उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान तिर्यंचगति और मनुष्य गति योग्य बंध करने पर बंधता है । उसके बंधक चारों गति के जीव हैं । तीर्थकरनामकर्म के साथ देवगतियोग्य बंध करने पर भी उनतीस प्रकृतियों का बंध होता है । उसके बंधक अविरतसम्यग्दृष्टि से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान तक में वर्तमान हैं । तीस प्रकृतिक बंधस्थान उद्योतनाम सहित तियंचयोग्य बंध करने पर बंधता है, उसके बंधक चारों गति के जीव हैं । तीर्थंकरनाम सहित मनुष्यगतियोग्य बंध करने पर भी तीस प्रकृतिक बंधस्थान बंधता है । उसके बंधक चतुर्थ गुणस्थान में वर्तमान देव और नारक हैं, एवं आहारकद्विक के साथ देवगतियोग्य बंध करने पर भी तीस प्रकृतियों का बंध होता है । उसके बंधक सातवें और आठवें गुणस्थान के छठे भाग तक में वर्तमान यति हैं । उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान के बंध के नौ उदयस्थान इस प्रकार हैं- इक्कीस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकत्तीस प्रकृतिक । जिनका विवरण इस प्रकार है— इक्कीस प्रकृतियों का उदय तिर्यंच और मनुष्य गति योग्य उनतीस प्रकृतियों को बांधने पर पर्याप्त अपर्याप्त एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य, देव और नारकों को विग्रहगति में होता है । चौबीस प्रकृतियों का उदय पर्याप्त अपर्याप्त एकेन्द्रिय को होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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