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________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६५ १३१ शब्दार्थ-सासायणे-सासादन गुणस्थान में, अपसत्याविहगगईअप्रशस्त विहायोगति, दूसरदुभगुज्जोवं-दुःस्वर, दुर्भग, उद्योत, अणाएज्जअनादेय, तिरियदुर्ग-तिर्यंचद्विक, मज्झिमसंघयणसंठाणा-मध्यम संहनन संस्थान । गाथार्थ-अप्रशस्त विहायोगति, दुःस्वर, दुर्भग, उद्योत, अनादेय, तिर्यंचद्विक, मध्यमसंस्थानचतुष्क और मध्यम संहननचतुष्क ये प्रकृतियां सासादन गुणस्थान तक ही बंधती हैं। विशेषार्थ-यहाँ दूसरे सासादन गुणस्थान में बंधविच्छेद को प्राप्त होने वाली नामकर्म की प्रकृतियों का निर्देश किया है। कारण सहित उनके नाम इस प्रकार हैं--- अप्रशस्तविहायोगति, दुःस्वर, दुर्भाग, उद्योत, अनादेय, तिर्यंचद्विक, ऋषभनाराच आदि मध्यम चार संहनन और न्यग्रोधपरिमण्डल आदि मध्यम चार संस्थान, इन पन्द्रह प्रकृतियों को सासादनगुणस्थानवी जीव ही बांधते हैं। मिश्रदृष्टि आदि नहीं बांधते हैं। जिसका कारण यह है इन प्रकृतियों के बंध में अनन्तानुबंधि कषाय के उदयजन्य परिणाम कारण हैं। मिश्रदृष्टि आदि को अनन्तानुबंधि का उदय नहीं होने से वे उक्त पन्द्रह प्रकृतियां को बांधते ही नहीं हैं। जिससे सासादन गुणस्थान में बंधने वाली इक्यावन प्रकृतियों में से पन्द्रह प्रकृतियों को कम करने पर नामकर्म की छत्तीस प्रकृतियां मिश्रदृष्टि जीव बांधते हैं। अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती भी इन्हीं प्रकृतियों को बांधते हैं, किन्तु इतना विशेष है कि इस गुणस्थान में तीर्थंकरनाम के बंधहेतु सम्यक्त्व के होने से तीर्थंकर नामकर्म का भी बंध हो सकता है। जिससे छत्तीस में तीर्थंकरनाम को मिलाने से सैंतीस प्रकृतियां जानना चाहिये। अब मिश्र आदि गुणस्थानों में कारण सहित नामकर्म की बंधविच्छेदयोग्य प्रकृतियों का निरूपण करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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