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मिश्र आदि गुणस्थानों में बंधयोग्य नामकर्म की प्रकृति
मोसो सम्मोराल मणुयदुगयाइ
आइसंघयणं ।
बंधइ देसो विरओ अथिरासुभअजसपुव्वाणि ॥ ६६ ॥ अपमतो सनियट्टि सुरदुगवेउव्यजुयलधुवबंधी ।
तसाइचउरंस
पंचेंदि ॥६७॥
परघाउसासखगई विरए आहारुदओ बंधो पुण जा नियट्टि अपमत्ता | तित्थस्स अविरयाओ जा सुमो ताव कित्तीए ॥ ६८ ॥
पंचसंग्रह : १०
शब्दार्थ -- मोसो मिश्र, सम्म -- अविरत सम्यग्दृष्टि, ओरालमणुयदुगयाई - ओदारिकद्विक, मनुष्यद्विक, आइसंघयणं - - प्रथम संहनन, बंधइबांधते हैं, देसो- देशविरत, विरओ-प्रमत्तविरत, अथिरासुभअजसपुरवाणिअस्थिर, अशुभ, अयशः कीर्ति ।
अपमतो - अप्रमत्त, सनियरिट-अपूर्वकरण सहित सुरदुग— देवद्विक, वेब्वजुयल - वैक्रियद्विक, ध्रुवबंधी - ध्रुवबंधिनी, परघाउसासखगई- पराघात, उच्छ्वास, विहायोगति तसाई - त्रसादि दशक, चउरंस- समचतुरस्रसंस्थान, पंचेंदि-पंचेन्द्रिय जाति ।
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विरए - विरत गुणस्थान में, आहारुदओ - आहारक का उदय, बंधोबंध, पुज - पुन:, और, जा-तक, नियट्टि - अपूर्वकरण, अपमत्त - -अप्रमत्त, तित्थस्स - तीर्थंकर नाम का अविश्याओ - अविरत सम्यग्दृष्टि से, जा— तक, सुहुमो- सूक्ष्मसंप रायगुणस्थान, ताव - - तक, कित्तीए - यशः कीर्ति का ।
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गाथार्थ - मिश्र और अविरत सम्यग्दृष्टि औदारिकद्विक, मनुष्यद्विक और प्रथम संहनन को बांधते हैं। देशविरत और प्रमत्तविरत अस्थिर, अशुभ और अयशः कीर्ति को बांधते हैं ।
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देवद्विक, वैक्रियद्विक, ध्रुवबंधिनी प्रकृति, पराघात, उच्छ्वास, विहायोगति त्रसदशक, समचतुरस्रसंस्थान, पंचेन्द्रियजाति को अप्रमत्त व अपूर्वकरण तक बांधते हैं ।
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