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________________ १३२ मिश्र आदि गुणस्थानों में बंधयोग्य नामकर्म की प्रकृति मोसो सम्मोराल मणुयदुगयाइ आइसंघयणं । बंधइ देसो विरओ अथिरासुभअजसपुव्वाणि ॥ ६६ ॥ अपमतो सनियट्टि सुरदुगवेउव्यजुयलधुवबंधी । तसाइचउरंस पंचेंदि ॥६७॥ परघाउसासखगई विरए आहारुदओ बंधो पुण जा नियट्टि अपमत्ता | तित्थस्स अविरयाओ जा सुमो ताव कित्तीए ॥ ६८ ॥ पंचसंग्रह : १० शब्दार्थ -- मोसो मिश्र, सम्म -- अविरत सम्यग्दृष्टि, ओरालमणुयदुगयाई - ओदारिकद्विक, मनुष्यद्विक, आइसंघयणं - - प्रथम संहनन, बंधइबांधते हैं, देसो- देशविरत, विरओ-प्रमत्तविरत, अथिरासुभअजसपुरवाणिअस्थिर, अशुभ, अयशः कीर्ति । अपमतो - अप्रमत्त, सनियरिट-अपूर्वकरण सहित सुरदुग— देवद्विक, वेब्वजुयल - वैक्रियद्विक, ध्रुवबंधी - ध्रुवबंधिनी, परघाउसासखगई- पराघात, उच्छ्वास, विहायोगति तसाई - त्रसादि दशक, चउरंस- समचतुरस्रसंस्थान, पंचेंदि-पंचेन्द्रिय जाति । J विरए - विरत गुणस्थान में, आहारुदओ - आहारक का उदय, बंधोबंध, पुज - पुन:, और, जा-तक, नियट्टि - अपूर्वकरण, अपमत्त - -अप्रमत्त, तित्थस्स - तीर्थंकर नाम का अविश्याओ - अविरत सम्यग्दृष्टि से, जा— तक, सुहुमो- सूक्ष्मसंप रायगुणस्थान, ताव - - तक, कित्तीए - यशः कीर्ति का । 1 गाथार्थ - मिश्र और अविरत सम्यग्दृष्टि औदारिकद्विक, मनुष्यद्विक और प्रथम संहनन को बांधते हैं। देशविरत और प्रमत्तविरत अस्थिर, अशुभ और अयशः कीर्ति को बांधते हैं । 1 देवद्विक, वैक्रियद्विक, ध्रुवबंधिनी प्रकृति, पराघात, उच्छ्वास, विहायोगति त्रसदशक, समचतुरस्रसंस्थान, पंचेन्द्रियजाति को अप्रमत्त व अपूर्वकरण तक बांधते हैं । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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