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सप्ततिका - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६,६७,६८
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आहारक का उदय विरत गुणस्थान में होता है और बंध अप्रमत्त से अपूर्वकरण तक होता है । तीर्थंकरनाम का बंध अविरत सम्यग्दृष्टिगुणस्थान से होता है और सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान तक यशः कीर्ति का बंध होता है ।
विशेषार्थ - इन तीन गाथाओं में जहाँ तक नामकर्म की प्रकृतियों का बंध हो सकता है उन मिश्रगुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसंप रायगुणस्थान तक जो-जो प्रकृतियां जिस गुणस्थान तक बंधती हैं और उसके बाद बंधविच्छेद हो जाता है, इसका निर्देश किया है । यथाक्रम से जिसका विवरण इस प्रकार है
मिश्रदृष्टि और अविरत सम्यग्दृष्टि इन तीसरे और चौथे गुणस्थान तक वर्तमान जीव ही औदारिकद्विक, मनुष्यद्विक और प्रथम - वज्रऋषभनाराचसंहनन नामकर्म को बांधते हैं - 'मीसो सम्मोरालमणुयदुगयाइ आइसंघयणं ।' देशविरत आदि गुणस्थानवर्ती जीव इन प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं क्योंकि देशविरत गुणस्थानवर्ती मनुष्यतिर्यंच और प्रमत्तविरतादि गुणस्थान वाले मनुष्य प्रतिसमय मात्र देवगति योग्य प्रकृतियों का ही बंध करते हैं ।
पहले गुणस्थान में चारों गतियोग्य, दूसरे गुणस्थान में नरकगति के सिवाय तीन गति योग्य, तीसरे और चौथे गुणस्थान में मनुष्य और तिर्यच देवगतियोग्य तथा देव और नारक मनुष्यगतियोग्य तथा पांचवें गुणस्थान से मात्र देवगतियोग्य प्रकृतियों का ही बंध होता है । मनुष्यद्विक आदि पांच प्रकृतियां मनुष्यगतियोग्य होने से पांचवें गुणस्थान से उनका बंध नहीं होता है ।
देशविरत और प्रमत्तसंयत अस्थिर, अशुभ और अयशः कीर्ति का बंध करते हैं, अप्रमत्तसंयत आदि नहीं बांधते हैं - 'बंधइ देसो विरओ अथिरासुभअज सपुव्वाणि' । इसका तात्पर्य यह है कि प्रथम गुणस्थान से लेकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक में वर्तमान जीव ही अस्थिर आदि इन तीन प्रकृतियों को बांधते हैं किन्तु अप्रमत्तसंयत आदि नहीं बांधते
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