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________________ १३४ पंचसंग्रह : १० हैं। क्योंकि उनके बंध में प्रमत्तदशा के परिणाम कारण हैं और आगे के अप्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानों में प्रमाद का अभाव है, जिससे इन तीन प्रकृतियों का बंध नहीं होता है। ___ चौथे गुणस्थान में बंधती नामकर्म की सैंतीस प्रकृतियों में से मनुष्यद्विक आदि पाँच प्रकृतियों को कम करने पर नामकर्म की बत्तीस प्रकृतियां देशविरत और प्रमत्तसंयत जीव बांधते हैं और उनमें से अस्थिर, अशुभ तथा अयशःकीर्ति को कम कर तथा आहारक द्विक को मिलाने पर इकत्तीस प्रकृतियां अप्रमत्तसंयत जीव बांधते हैं। क्योंकि आहारकद्विक का बंधहेतु विशिष्ट चारित्र यहां पर है । तथा देवद्विक, वैक्रियद्विक, नामकर्म की ध्रुवबंधिनी-तैजस, कार्मण, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माण नाम तथा पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, सदशक, समचतुरस्रसंस्थान और पंचेन्द्रियजाति, इन अट्ठाईस प्रकृतियों को मिथ्यादृष्टि से लेकर अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान (के छठे भाग) तक में वर्तमान जीव बांधते हैं और उसके बाद तद्योग्य परिणामों का अभाव होने से अनिवृत्तिबादरसंपराय आदि आगे के गुणस्थानों में इनका बंध नहीं होता है। देवगतियोग्य एवं तीर्थकरनाम तथा आहारकद्विक के बंधयोग्य परिणाम भी आठवें गुणस्थान तक ही होते हैं। तत्पश्चात् जितने विशुद्ध परिणाम चाहिये उनकी अपेक्षा भी विशुद्धतर हो जाने से उपर्युक्त (यशःकीर्ति के सिवाय) कोई भी प्रकृति नहीं बंधती है। अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में देवगतियोग्य जो इकत्तीस प्रकृतियां बंध में कही हैं, वही अपूर्वकरण गुणस्थान में भी बंधती हैं । अपूर्वकरण के छठे भाग में यश:कीर्ति के सिवाय तीस प्रकृतियों का बंधविच्छेद होता है, जिससे अपूर्वकरण गुणस्थान के सातवें भाग से लेकर सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान के चरम समय पर्यन्त मात्र एक यशःकीर्तिनाम का ही बंध होता है । तथा-- 'विरए आहारुदओ' अर्थात् प्रमत्त और अप्रमत्त संयत गुणस्थान में आहारकद्विक का उदय होता है और बंध अप्रमत्तसंयत से लेकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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