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सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६,७०,७१,७२
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अपूर्वकरण गुणस्थान के छठे भाग पर्यन्त होता है । अन्य किन्हीं गुणस्थानों में तद्योग्य परिणामों का अभाव होने से बंध और उदय नहीं होता है ।
तीर्थंकरनाम का बंध अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान से लेकर अपूर्वकरणगुणस्थान के छठे भाग तक होता है और उदय सयोगिकेवली एवं अयोगिकेवली गुणस्थानों में ही होता है ।
यशःकीर्तिनाम का बंध मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसंप रायगुणस्थान पर्यन्त होता है । उसके बाद नामकर्म की कोई भी प्रकृति नहीं बंधती है ।
इस प्रकार से नामकर्म के बंध, बंधस्थान आदि से संबंधित प्ररूपणा जानना चाहिये | अब उदय संबंधी विशेष कथनीय का निरूपण करते हैं ।
नामकर्म संबंधी उदय विषयक विशेष कथनीय
उज्जोवआथवाणं उदओपुव्विपि होइ पच्छावि । ऊसाससहितो सुमतिगुज्जोय नायाव ॥६६॥ उज्जोवेनायावं सुहमतिगेण न बज्झए उभयं । उज्जोवजसाणुदए जायइ साहारणसुदओ ॥७०॥ दुभगाईणं उदए बायरपज्जो विउव्वए पवणो । देवगईए उदओ दुभगअणाएज्ज उदएवि ॥ ७१ ॥ सूसरउदओ विगलाण होइ विरयाण देसविरयाणं । उज्जोवुदओ जायइ वेउव्वाहारगद्धाए ॥७२॥
शब्दार्थ - उज्जोवआयवाणं-उद्योत और आतप का उदओ -- उदय, पुव्विपि - पहले भी, होइ— होता है, पच्छावि-पीछे भी, ऊसाससरे हितो
१ नामकर्म के बंधस्थानों सम्बन्धी वक्तव्यता का प्रारूप परिशिष्ट में देखिये |
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