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उच्छ्वास और स्वर का, सुहुम तिगुज्जोय - सूक्ष्मत्रिक और उद्योत का, आतप का नहीं ।
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उज्जीवेनायावं - उद्योत के साथ आतप, सुहुमतिगेण — सूक्ष्मत्रिक के साथ, न- - नहीं, बज्झए - बंधते हैं, उभयं -- दोनों, उज्जोवजसाणुदए— उद्योत और यशः कीर्ति के उदय में, जायइ साहारणस्सुदओ - साधारण का
- होता है,
उदय ।
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पंचसंग्रह : १०
नायावं
दुमगाईणं - दुभंग आदि के, उदए - उदय में, बायरपज्जो - बादर पर्याप्त, विजत्वए - विकुर्वणा करता है, पवणो- वायु का, उदओ - उदय, दुभगअणाज्ज-- दुभंग, भी ।
(कायिक), देवगईए – देवगति अनादेय के, उबएवि -- उदय में
सुसर उदओ - सुस्वर का उदय, विगलाण - विकलत्रिक को, होइ — होता है, विरयाण – सर्वविरतों, देसविरयाणं - देशविरतों के, उज्जोबुदओ - उद्योत का उदय, जायइ — होता है, वेउव्वाहारगद्वाए - वैक्रिय और आहारक को ( करने के ) समय में ।
गाथार्थ - उद्योत और आतप का उदय उच्छ्वास और स्वर का उदय होने के पूर्व भी होता है और पीछे भी होता है तथा सूक्ष्मत्रिक और उद्योत के उदय के साथ आतप का उदय नहीं होता है ।
उद्योत के साथ आतप का बंध नहीं होता है और सूक्ष्मत्रिक के साथ दोनों का ही बंध नहीं होता है । उद्योत और यशः कीर्ति का उदय होने पर साधारण का भी उदय होता है ।
दुर्भग आदि के उदय में बादर पर्याप्त वायुकायिक जीव वैक्रिय शरीर की विकुर्वणा करते हैं । दुर्भग और अनादेय के उदय में भी देवगति का उदय होता है ।
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सुस्वर का उदय विकलेन्द्रियों के भी होता है । देशविरतों और सर्वविरतों के वैक्रिय और आहारक शरीर को करने के समय में उद्योत का उदय होता है ।
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