SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६,७०,७१,७२ १३७ विशेषार्थ - इन चार गाथाओं में विधि - निषेधमुखेन नामकर्म की कुछ प्रकृतियों के सहचारी उदय की संभवासंभवता का विचार किया है । यथाक्रम से जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है एकेन्द्रिय जीवों के उच्छ्वास पर्याप्ति से पर्याप्त होने के पूर्व या पीछे तथा द्वीन्द्रियादि जीवों के उच्छ्वास और भाषापर्याप्ति से पर्याप्त होने के पहले या पीछे यथायोग्य रीति से उद्योत और आतप का उदय होता है, तथा सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण रूप सूक्ष्मत्रिक और उद्योत नाम के साथ आतप नामकर्म का उदय नहीं होता है । उद्योत के बंध के साथ आतप नाम का बंध नहीं होता है । तथा सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण नाम के बंध के साथ आतप या उद्योत दोनों में से किसी एक का भी बंध नहीं होता है । उक्त बंधविषयक अपवाद का उल्लेख करने के बाद अब उदय विषयक अपवाद का कथन करते हैं कि उद्योत और यशः कीर्ति के उदय के साथ साधारणनाम का उदय हो सकता है, ' अर्थात् साधारणनामकर्म के उदय वाले के उद्योत और यशः कीर्ति का उदय संभव है 'उज्जोवजसा " .."साहारणस्सुदओ ।' - दुभंग, अनादेय और अयशः कीर्ति का उदय होने पर भी पर्याप्त बादर वायुकायिक जीव वैक्रिय शरीर को प्रारम्भ करते हैं । अर्थात् वैक्रिय शरीर की विकुर्वणा करने वाले पर्याप्त बादर वायुकायिक जीवों के दुर्भगत्रिक का उदय होता है । यहाँ पर्याप्त बादर विशेषण को ग्रहण करने से यह आशय समझना चाहिये कि पर्याप्त अपर्याप्त सूक्ष्म और अपर्याप्त बादर वायुकायिक जीवों का निषेध किया गया १ यहाँ यह ध्यान रखना चाहिये कि सूक्ष्मनाम के साथ उद्योत का उदय नहीं होता है । परन्तु बादरनाम के उदय के साथ होता है । यानि बादर साधारण को उद्योत का उदय संभव है, सूक्ष्म - साधारण को नहीं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy