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सप्ततिका - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७६,८०
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विशेषार्थ - यहाँ एकेन्द्रिय के उदयस्थानों का विचार किये जाने से गति - तियंचगति, आनुपूर्वी तियंचानुपूर्वी, जाति--एकेन्द्रिय जाति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त रूप स्थावरत्रिक, दुर्भग, अनादेय और अयश:कीर्ति रूप दुर्भगत्रिक, एवं नामकर्म की ध्रुवोदया-तेजस, कार्मण, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, निर्माण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ रूपबारह प्रकृति, इस तरह सब मिलाकर इक्कीस प्रकृतियों का उदय भव से भवान्तर में जाते एकेन्द्रिय को होता है ।
एक भव से भवान्तर में जाते एकेन्द्रियों को बादर, पर्याप्त और यशः कीर्ति का भी उदय संभव है । जिससे उन प्रकृतियों को भी परावर्तन के क्रम से इक्कीस में मिलाने से इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान के पांच भंग होते हैं । जो इस प्रकार हैं- १. बादर - अपर्याप्त-अयशः - कीर्ति, २ बादर - पर्याप्त अयशः कीर्ति, ३. सूक्ष्म अपर्याप्त अयशः कीर्ति, ४. सूक्ष्म - पर्याप्त - अयशः कीर्ति और ५. बादर पर्याप्त यशः कीर्ति ।
यशः कीर्ति का उदय बादर और पर्याप्त नाम के उदय के साथ हो सकता है, किन्तु सूक्ष्म या अपर्याप्त नाम के उदय के साथ नहीं होता है । इसीलिये जहाँ-जहाँ सूक्ष्म या अपर्याप्त नाम का उदय हो वहाँ मात्र अयशः कीर्ति के उदय के ही भंग लेना चाहिये । इस प्रकार इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान के पांच भंग - विकल्प होते हैं ।
शेष द्वीन्द्रियादि जीवों के भी एक भव से दूसरे भव में जाने पर इक्कीस प्रकृतियों का उदय होता है । इसलिये उस-उस गति और द्वीन्द्रियादित्व का विचार करके गति, जाति आदि प्रकृतियों का व्यत्यास विपर्यास - परावर्तन स्वयमेव करके उन-उनके उदयस्थानों का विचार करना चाहिये । जिसका स्पष्टीकरण द्वीन्द्रियादि के उदयस्थानों का विचार करते समय हो जायेगा तथा
सा आणुपुव्विहीणा अपज्जगदितिरियमणुयाणं । पत्तउवधायसरीरहुण्डसहिया उ चवीसा ॥८०॥ शब्दार्थ -सा- पूर्वोक्त वे प्रकृति, आणुपुविहीणा - आनुपूर्वी के बिना, अपज्जगदितिरियमणुयाणं- अपर्याप्त, एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रियादि तियंचों और
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