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________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४० दलिक का उदय होता है । इसका तात्पर्य यह हुआ कि अनन्तानुबंधि की विसंयोजना करने के बाद मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के उदय से पतन कर जिस समय मिथ्यात्व गुणस्थान में आता है, उस समय से एक आवलिका बाद अवश्य अनन्तानुबंधि कषाय का उदय होता है । पतद् विषयक विस्तृत विचार पूर्व में ( गाथा २६ में) किया जा चुका है। इस प्रकार से मोहनीय कर्म के बंध, उदय और सत्ता स्थानों का विचार करने के बाद अब बंधस्थानों आदि के परस्पर संवेध का वर्णन करते हैं । मोहनीयकर्म का संवेध ७७ बावीसं बंधते मिच्छे सत्तोदयंमि अडवीसा । संतं छसत्तवीसा य होंति सेसेसु उदएसु ॥४०॥ शब्दार्थ - बावीस-बाईस, बंधते -- बंध होता है, मिच्छे-- मिथ्यात्व गुणस्थान में, सत्तोदयंमि - सात का उदय होने पर, अडवीसा - अट्ठाईस की, संतं - सत्ता, छसत्तवीसा - छब्बीस, सत्ताईस की य-और, होंति — होती है, सेसेसु - उदए सु- शेष उदयों में । गाथार्थ - मिथ्यात्व गुणस्थान में बाईस का बंध होता है और वहां सात का उदय होने पर अट्ठाईस की सत्ता होती है तथा शेष उदयों में छब्बीस और सत्ताईस की भी सत्ता होती है ।. विशेषार्थ - गाथा में गुणस्थानों के क्रम से मोहनीय कर्म के बंध, उदय और सत्तास्थानों का परस्पर संवेध का विचार प्रारम्भ किया है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है 'बावीस बंधते मिच्छे' पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में मोहनीय कर्म की बाईस प्रकृतियों का बंध होता है और वहां सात प्रकृतिक उदयस्थान होने पर अट्ठाईस प्रकृति का समुदाय रूप एक ही सत्तास्थान होता है - 'सत्तोदयंमि अडवीसा' । सात का उदयस्थान अनन्तानुबंधि के उदय बिना होता है और For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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