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________________ पंचसंग्रह : १० हैं अतः अब मोहनीयकर्म की प्रकृतियों के उद्वलकों का कथन करते हैं। मोहनीयकर्मप्रकृतियों के उद्वलक सम्ममीसाणं मिच्छो सम्मो पढमाण होइ उव्वलगो। बंधावलियाउप्पिं उदओ संकेतदलियस्स ॥३६॥ शब्दार्थ-सम्ममीसाणं-सम्यक्त्व और मिश्रमोहनीय का, मिच्छोमिथ्यादृष्टि, सम्मो-सम्यग्दृष्टि, पढमाण-प्रथम (अनन्तानुबंधि) कषायों का, उठवलगो-उद्वलक, बंधावलियाउप्पिं बंधावलिका के बाद, उदओ-उदय, संकंतदलियस्स-संक्रांत दलिक का। ___ गाथार्थ-सम्यक्त्व और मिश्र मोहनीय का उद्वलक मिथ्यादृष्टि और अनन्तानुबंधि कषाय का सम्यग्दृष्टि है तथा बंधावलिका के जाने के बाद संक्रांत दलिक का उदय होता है । विशेषार्थ-गाथा के पूर्वार्ध में उद्वलक और उत्तरार्ध में अनन्तानुबंधि कषाय के उदय के करण सूत्र का संकेत किया है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है____ 'सम्ममीसाणं मिच्छो' अर्थात् सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय की उद्वलना मिथ्यादृष्टि करता है तथा 'सम्मो पढमाण होइ उव्वलगो' अर्थात् अनन्तानुबंधि की उद्वलना-चौथे से सातवें गुणस्थान तक के सम्यग्दृष्टि जीव करते हैं। उद्वलित अनन्तानुबंधि कषाय का पहले गुणस्थान में इस तरह उदय होता है कि अनन्तानुबंधि की उद्वलना करने वाला मिथ्यात्व के उदय से गिरकर मिथ्यात्व गुणस्थान में जाता है। जिस समय मिथ्यात्व गुणस्थान में जाता है, उसी समय से बीजभूत मिथ्यात्व रूप हेतु द्वारा अनन्तानुबंधि का बंध करना प्रारम्भ करता है और जिस समय से बंध करने की शुरुआत करताह उसी समय से पतद्ग्रह रूप हुई उसी अनन्तानुबंधि में अप्रत्याख्यानावरणादि कषाय प्रकृतियों के दलिक संक्रमित होते हैं और संक्रमावलिका के बीतने के बाद उस संक्रांत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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