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सप्ततिका - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६०
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गाथार्थ - वैक्रियषट्क, दुर्भग, अनादेय, अयश कीर्ति और आनुपूर्वी का उदय अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में होता है तथा तिर्यंचगति और उद्योत नाम सहित उदय देशविरत गुणस्थान होता है ।
विशेषार्थ - यहाँ चौथे और पाँचवें गुणस्थान तक नामकर्म की उदयोग्य प्रकृतियों के नाम बताये हैं । वे इस प्रकार हैं
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अविरत सम्यग्दृष्टिगुणस्थान, अपान्तरालगति-विग्रहगति में भी होता है, जिससे चारों आनुपूर्वियों का उदय संभव है । अतएव उन चार का उदय पूर्वोक्त इक्यावन के उदय में बढ़ाने पर पचपन प्रकृतियों का उदय अविरतसम्यग्दृष्टि को होता है ।
उनमें से वैक्रियषट्क - देवगतिद्विक, नरकगतिद्विक, वैक्रियद्विक, दुर्भग, अनादेय, अयशः कीर्ति, तिर्यंचानुपूर्वी और मनुष्यानुपूर्वी इन ग्यारह प्रकृतियों का उदयविच्छेद होता है । यानि इन ग्यारह प्रकृतियों का उदय चौथे गुणस्थान तक होता है। पांचवें आदि गुणस्थानों में नहीं होता है । जिससे पचपन में से ग्यारह प्रकृतियों को कम करने पर पाँचवें गुणस्थान में चवालीस प्रकृतियों का उदय होता है ।
विरताविरत - देशविरत गुणस्थान में तिर्यंचगति और उद्योत
१ यहाँ पांचवें गुणस्थान में जो वैक्रियशरीर और वैक्रियअंगोपांगनाम के उदय का निषेध किया है वह कर्मस्तव के अभिप्रायानुसार किया है । पंचसंग्रहकार ने तो देशविरत, प्रमत्त, अप्रमत्तगुणस्थान में भी उनका उदय स्वीकार किया है । क्योंकि अपनी स्वोपज्ञ वृत्ति में उनसे होने वाले भंगों का गाथा १२६ में विचार किया है ।
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यहाँ भवधारणीय वैक्रियशरीर की विवक्षा है क्योंकि भवधारणीय वैक्रियशरीर चौथे गुणस्थान तक ही होता है । कृत्रिम क्रियशरीर पांचवें, छठे और सातवें गुणस्थान तक भी होता है । उसकी विवक्षा से सातवें गुणस्थान तक वैकिय शरीर के उदय को ग्रहण किया जा सकता है ।
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