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________________ १७८ पंचसंग्रह : १० नाम का उदयविच्छेद होता है यानि देशविरत गुणस्थान तक ही उनका उदय होता है और प्रमत्तसंयत आदि आगे के गुणस्थानों में उदय नहीं होता है । जिससे चवालीस प्रकृतियों में से उनको कम करने तथा विरयापमत्तएसु अंततिसंघयणपुव्वगाणुदओ। अपुव्वकरणमादिसु दुइयतइज्जाण खीणाओ॥१॥ नामधुनोदय सूसरखगईओरालदुव च पत्तेयं । उदघायति संठाणा उसभ जोगम्मि पुवुत्ता ॥२॥ शब्दार्थ-विरयापमत्तएसु-प्रमत्त और अप्रमत्त विरत में, अंततिसंघयणपुव्वगाणुदओ-अन्तिम तीन संहनन प्रकृतियों का उदय, अपव्वकरणमादिसुअपूर्वकरण आदि में, दुइयतइज्जाण-दूसरे और तीसरे संहनन का, खीणाओ -क्षीणमोह गुणस्थान आदि में । ___ नावधुवोदय-नामध्र वोदयी, सूसरखगईओरालदुव-सुस्वरद्विक, खगतिद्विक, औदारिकद्विक, पत्रोयं-प्रत्येक, उवधायति --- उपधातत्रिक, संठाणासंस्थान, उसभ -वज्र ऋषभनाराचसंहनन, जोगम्मि–सयोगिकेवली के, पुवत्ता-(अयोगि) के पूर्वोक्त (आठ या नौ)। गाथार्थ-प्रमत्त और अप्रमत्त विरत गुणस्थान में अंतिम तीन संहननादि का तथा अपूर्वकरणादि में दूसरे-तीसरे संहनन आदि का उदय होता है । क्षीणमोह आदि गुणस्थानों में- नामध्र वोदयी, सुस्वरद्विक, खगतिद्विक और औदारिकद्विक, प्रत्येक, उपघातत्रिक, संस्थान और प्रथम संहनन का सयोगिकेवलीगुणस्थान में उदय होता है और अयोगि में पूर्वोक्त (आठ या नौ) का उदय होता है। विशेषार्थ-प्रमत्त और अप्रमत्त संयत गुणस्थान में अंतिम तीन संहनन-अर्धनाराच, कीलिका और सेवार्त संहनन आदि बयालीस तथा यहाँ आहारकद्विक का भी उदय संभव होने से उन दो को भी बयालीस में मिलाने पर कुल चवालीस प्रकृतियों का उदय होता है। ___www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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