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________________ १७६ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६१,६२ अंतिम तीन संहननों का अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में उदयविच्छेद होता है और आहारकद्विक का उदय भी श्रेणि में नहीं होने से अपूर्वकरण से उपशांत मोहगुणस्थान तक में उनतालीस प्रकृतियों का उदय होता है । ऋषभनाराच और नाराच संहनन का उदय अपूर्वकरण से उपशांतमोह गुणस्थान तक ही होता है । क्षीणमोहादि गुणस्थानों में नहीं होता है | जिससे उन्हें कम करने पर क्षीणमोह और सयोगिकेवली गुणस्थानों में सैंतीस प्रकृतियों का उदय होता है तथा तीर्थंकरनाम के उदय वाले सयोगिकेवली के तीर्थंकरनामकर्म के साथ अडतीस प्रकृतियों का उदय होता है । तथा नामकर्म की ध्रुवोदया - स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, तैजस, कार्मण, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु और निर्माण रूप बारह प्रकृति, सुस्वरद्विक, विहायोगतिद्विक, औदारिकद्विक, प्रत्येक, उपघातत्रिक उपघात, पराघात और उच्छ्वास, छह संस्थान, वज्रऋषभनाराचसंहनन, इन पुद्गलविपाकी उनतीस प्रकृतियों का सयोगिकेवलीगुणस्थान में उदयविच्छेद होता है । यानि इन उनतीस प्रकृतियों का उदय सयोगिकेवल गुणस्थान तक ही होता है, अयोगिकेवली गुणस्थान में नहीं होता है । अयोगिकेवली गुणस्थान में मात्र जीवविपाकी - त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यशः कीर्ति, पंचेन्द्रियजाति और मनुष्यगति रूप आठ प्रकृतियों का सामान्यकेवली के और तीर्थंकर भगवान को तीर्थंकरनाम सहित नौ प्रकृतियों का उदय है तथा उनका भी अयोगि के चरम समय में उदयविच्छेद होता है । इस प्रकार गुणस्थानों में नामकर्म का प्रकृतियों का उदय और उदयविच्छेद जानना चाहिये और इस वर्णन के साथ नामकर्म की प्रकृतियों के उदयाधिकार का वर्णन पूर्ण हुआ । अब नामकर्म के १ नामकर्म के उदयस्थानों सम्बन्धी वर्णन के प्रारूप परिशिष्ट में देखिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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