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पंचसंग्रह : १०
सत्तास्थानों का निरूपण करते हैं। नामकर्म के सत्तास्थान
पिंडे तित्थगरुणे आहारुणे तहोभयविहूण । पढमचउक्कं तस्सउ तेरसगखए भवे बीयं ॥३॥ सुरदुगवेउव्वियगइदुगे य उव्वट्टिए चउत्थाओ।
मणुदुगेय नवठ्ठय दुहा भवे संतयं एक्कं ॥१४॥ शब्दार्थ-पिंडे-सभी प्रकृतियों का पिंड रूप, तित्थगरुणे-तीर्थकर नाम से न्यून, आहारुगे-आहारकचतुष्क न्यून, तहोभयविहूणे-तथा दोनों से न्यून, पढमचउक्कं—प्रथम चतुष्क, तस्सउ-उसमें से, तेरसगखए-तेरह प्रकृतियों का क्षय होने पर, भवे-होता है, बीयं-दूसरा चतुष्क, सुरदुग--देवगतिद्विक, वेउध्वियगइदुगे-क्रियद्विक, गतिद्विक, य-और, उध्वट्टिएउद्वलना करने पर, चउत्थाओ-चौथे स्थान में से, मणुदुगेय--और मनुष्यद्विक, नवठ्ठय -नौ और आठ प्रकृतिक, दुहा-दो प्रकार से, भवे-होता है, संतयं-सत्ता, एक्कं-एक ।।
गाथार्थ-नामकर्म की सभी तेरानवै प्रकृतियों का पिंड रूप पहला सत्तास्थान, उसमें से तीर्थंकरनाम न्यून होने पर, आहारकचतुष्क न्यून होने पर और उभय न्यून होने पर बानवै, नवासी, और अठासी प्रकृतिक इस तरह कुल चार सत्तास्थान होते हैं। इनकी प्रथम सत्ताचतुष्क यह संज्ञा है। इनमें से तेरह प्रकृतियों का क्षय होने पर दूसरा सत्ताचतुष्क होता है। प्रथम सत्ताचतुष्क के चौथे सत्तास्थान में से देवद्विक, वैक्रिय द्विक (चतुष्क) की, तत्पश्चात् (नरक) गतिद्विक और उसके बाद मनुष्यद्विक की उद्वलना होने पर तीन सत्तास्थान होते हैं तथा नौ और आठ प्रकृतिक कुल तेरह सत्तास्थान होते हैं। इनमें से अस्सी की सत्ता दो प्रकार से होती है, उसे एक प्रकार से गिनने पर नामकर्म के बारह सत्तास्थान होते हैं। विशेषार्थ-नामकर्म की सभी प्रकृतियाँ तेरान हैं। उन सब
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