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पंचसंग्रह : १०
बानवै प्रकृतिक सत्तास्थान होता है ।।
नवासी प्रकृतिक सत्तास्थान अविरतसम्यग्दृष्टि देव, नारक और मनुष्यों को होता है। क्योंकि ये तीनों गति वाले जीव तीर्थकरनाम का बंध कर सकते हैं । तिर्यंचों में तीर्थंकर नाम की सत्ता वाला उत्पन्न भी नहीं होता है। इसलिये तिर्यंच का ग्रहण नहीं किया है । अठासी प्रकृतिक सत्तास्थान सामान्य से चारों गति वाले अविरत सम्यग्दृष्टि जीवों के होता है । - इस प्रकार से अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान के बंध, उदय और सत्तास्थानों को जानना चाहिये अब इनके संवेध का निरूपण करते हैं।
देवगतियोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों के बंधक मनुष्य और तिर्यंचों के यथायोग्य प्रकार से आठ उदयस्थान होते हैं। उनमें से पच्चीस और सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान वैक्रिय तिर्यंच और मनुष्यों की अपेक्षा होता है । अपने-अपने उदय में रहते वे अट्ठाईस प्रकृतियों का बध करते हैं और एक-एक (प्रत्येक) उदयस्थान में बानवै और अठासी उदय प्रकृतिक इस तरह दो-दो सत्तास्थान होते हैं।
उनतीस प्रकृतियों का बंध देवगतियोग्य और मनुष्यगतियोग्य, इस तरह दो प्रकार का है। उसमें देवगतियोग्य उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान तीर्थंकरनाम युक्त है और उसका बंध मनुष्य ही करते हैं। इसके उदयस्थान इक्कीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस और तीस प्रकृतिक इस प्रकार सात हैं। इन उदयस्थानों में वर्तमान मनुष्य देवगतियोग्य उनतीस प्रकृतियों का बंध करते हैं ।
१ क्योंकि मनुष्य तो उपशम श्रेणि से गिरता-गिरता अविरत गुणस्थान में
आता है और श्रेणि में काल करके सम्यक्त्व युक्त वैमानिक देव में उत्पन्न होता है । जिससे सम्यक्त्व से नहीं गिरने वाले मनुष्य और देव के बानवे प्रकृतिक सत्तास्थान घटित हो सकता है।
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