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________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६ २८५ इकत्तीस प्रकृतियों का उदय मनुष्यों में नहीं होता है। प्रत्येक उदयस्थान में तेरानवै और नवासी प्रकृतिक इस तरह दो-दो सत्तास्थान होते हैं। मनुष्यगतियोग्य उनतीस प्रकृतियों का बंध देव और नारक करते हैं। उनमें नारकों के इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस प्रकृतिक ये पांच उदयस्थान होते हैं और देवों के उक्त पांच और छठा तीस प्रकृतिक इस तरह छह उदयस्थान होते हैं। उनमें तीस प्रकृतिक उदयस्थान के उद्योत के वेदक देवों के समझना चाहिये । अपने-अपने उदयस्थानों में वर्तमान देवों और नारकों को मनुष्ययोग्य उनतीस प्रकृतियों का बंध होता है और प्रत्येक उदयस्थान में बानवै और अठासो प्रकृतिक इस तरह दो-दो सत्तास्थान होते हैं। मनुष्यगतियोग्य तीर्थंकरनाम युक्त तीस प्रकृति अविरतसम्यग्दृष्टि देव और नारक बांधते हैं। उनमें से देवों के ऊपर कहे अनुसार छहों उदयस्थान होते हैं और उन प्रत्येक उदयस्थान में तेरानवै और नवासी प्रकृतिक इस तरह दो-दो सत्तास्थान जानना चाहिये । नारकों के तीस प्रकृतियों का बंध करने पर पांच उदयस्थान होते हैं और उन प्रत्येक उदयस्थान में एक मात्र नवासी प्रकृतिक सत्तास्थान ही होता है। क्योंकि तीर्थकर नाम और आहारकचतुष्क इन दोनों की संयुक्त सत्ता होने पर कोई भी जीव नरकगति में उत्पन्न नहीं होता है । इसलिये उनको तेरानवै प्रकृतिक सत्तास्थान संभव नहीं है । इस प्रकार सामान्य से इक्कीस से लेकर तीस प्रकृतिक उदयस्थानों में के प्रत्येक उदयस्थान में तेरानवै, वानवै, नवासी, अठासी इस प्रकार चार सत्तास्थान होते हैं और इकत्तीस प्रकृतिक उदयस्थान में वानवै और अठासी प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान होते हैं। कुल मिलाकर ये तोस सत्तास्थान होते हैं । संक्षेप में उक्त विवेचन का सारांश इस प्रकार हैयह गुणस्थान चारों गति के जीवों को करण-अपर्याप्तावस्था और For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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