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________________ २८६ पंचसंग्रह : १० पर्याप्तावस्था में होता है। अपर्याप्तावस्था में नया सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता है, परन्तु सम्यक्त्व को साथ लेकर चारों गति में जा आ सकता है। अतएव अपर्याप्तावस्था में भी यह गुणस्थान होता है। इस गुणस्थानवर्ती देव और नारक मनुष्यगतियोग्य उनतीस और तीर्थंकरनाम सहित तीस प्रकृतियों का बंध करते हैं। मनुष्य देवगतियोग्य अट्ठाईस और तीर्थकरनाम सहित उनतीस प्रकृतियों को और तिर्यंच मात्र अट्ठाईस प्रकृतियों को बांधते हैं। चारों गति के जीव अपने-अपने उदयस्थानों में रहते उपर्युक्त बंधस्थान बांधते हैं। सत्तास्थान तेरानवै, बानवे, नवासी और अठासी प्रकृतिक ये चार होते हैं। इनमें से देवगति में चारों, नरकगति में तेरानवै के सिवाय तीन, मनुष्यगति में चारों और तिर्यंचगति में बानवै एवं अठासी प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान होते हैं । इस प्रकार से अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान संबन्धी बंध, उदय, सत्तास्थान एवं तत्संबन्धी संवेध जानना चाहिये । सुगम बोध के लिये जिसका प्रारूप पृष्ठ २८७ पर देखिए। देशविरत गुणस्थान के बंध, उदय और सत्तास्थानों का विवरण इस प्रकार है____ यह गुणस्थान संख्यात वर्ष के आयु वाले मनुष्य और तिर्यंचों के ही होता है और वह भी पर्याप्तावस्था में ही । अतएव इस गुणस्थान में अट्ठाईस और उनतीस प्रकृतिक ये दो बंधस्थान होते हैं। इनमें से अट्ठाईस प्रकृतिक बंधस्थान देशविरत मनुष्यों या तियंचों के देवगतियोग्य प्रकृतियों का बंध करने पर होता है और स्थिर-अस्थिर, शुभअशुभ, यश:कीर्ति-अयशःकीर्ति के भेद से आठ भंग होते हैं और उक्त १ यह गुणस्थान संख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यचों के होता है और उन्हें उपशम या क्षयोपशम सम्यक्त्व होता है । संख्यात वर्ष की आयु वालों में सायिक सम्यक्त्व नहीं होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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