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सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६
२८७ अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में नामकर्म के बंधादि स्थानों का
प्रारूप
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बंधस्थान
उदयस्थान
सत्तास्थान
२८ प्र.
२६ प्र.
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६२,८८ , १२,८८ ,, ६२, ८८ ,. ६२, ८८ , ६२, ८८ ,, ६२, ८८ " ६२, ८८ ., ६३, ६२, ८६, ८८ प्र. ६३, ६२, ८६, ८८ ६३, ६२, ८६, ८८ ६३, १२, ८६, ८ ,, ६३, ६२, ८६, ८८ ., ६३, ६२, ८६, ८८ ,, ६३, ६२, ८६, ८८ ., ६३, ८६ प्र. ६३, ८६ " ६३, ८६ , ६३, ८६" ९३, ८६, ६३, ८६,
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अट्ठाईस प्रकृतिक बंधस्थान को तीर्थकरनाम युक्त करने पर उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान होता है और यह बंधस्थान मात्र मनुष्यों के ही होता है । क्योंकि तिर्यचों के तीर्थकरनाम का बंध होता ही नहीं है।
इसके भी उक्त आठ भंग होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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