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________________ २८८ पंचसंग्रह : १० __ यहाँ छह उदयस्थान होते हैं। जो इस प्रकार हैं-पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकत्तीस प्रकृतिक । इनमें से आदि के चार उदयस्थान वैक्रिय तिथंच और मनुष्यों को होते हैं तथा इस गुणस्थान में दुर्भग, अनादेयं और अयशःकीति का उदय नहीं होने से चारों उदयस्थानों में एक-एक ही भंग होता है। तीस प्रकृतिक उदयस्थान वैक्रिय तिर्यंच एवं स्वभावस्थ तिर्यंचमनुष्यों के भी होता है । इसके भंग एक सौ चवालीस होते हैं। जो छह संस्थान, छह संहनन, सुस्वर-दुःस्वर, प्रशस्त विहायोगतिअप्रशस्त विहायोगति नाम के परावर्तन से होते हैं। दुर्भग, अनादेय और अयशःकीर्ति का उदय गुण के प्रभाव से ही देशविरत को होता नहीं है। जिससे तदाश्रित विकल्प भी नहीं होते हैं । इकत्तीस प्रकृतियों का उदय तिर्यंचों के ही होता है। उसके भी ऊपर कहे एक एक सौ चवालीस भंग होते हैं। इस गुणस्थान में तेरानवै, बानवै, नवासी और अठासी प्रकृतिक इस प्रकार चार सत्तास्थान होते हैं। इनमें यदि कोई अप्रमत्त या अपूर्वकरण गुणस्थानवी जीव तीर्थकरनाम और आहारकद्विक बांधकर परिणामों के ह्रासोन्मुखी होने से देशविरति हो तो उसे तेरानवै प्रकृतिक सत्तास्थान होता है और शेष सत्तास्थानों का विचार अविरतसम्यग्दृष्टि की तरह समझना चाहिये। अब इनके संवेध का कथन करते हैं देवगतियोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों के बंधक देशविरत मनुष्य को पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस प्रकृतिक ये पांच उदयस्थान होते हैं। इनमें से आदि के चार उदयस्थान वैक्रिय मनुष्य और पांचवां स्वभावस्थ मनुष्य को होता है। इन प्रत्येक उदयस्थान में बानवै और अठासी प्रकृतिक इस तरह दो-दो सत्तास्थान होते हैं । देवगतियोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों के बंधक देशविरत तिर्यंच को भी ऊपर कहे अनुसार पांच एवं छठा इकत्तीस प्रकृतिक इस प्रकार छह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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