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________________ सप्ततिका - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६ २८६ उदयस्थान होते हैं । इन प्रत्येक उदयस्थान में भी बानव एवं अठासी प्रकृतिक इस प्रकार दो-दो सत्तास्थान होते हैं । तीर्थकरनाम युक्त देवगतियोग्य उनतीस प्रकृतियों का बंध देशविरत मनुष्यों के ही होता है । उसमें पहले मनुष्य को जो और जिस प्रकार से पांच उदयस्थान कहे हैं, वे उसी प्रकार से पांच उदयस्थान होते हैं । प्रत्येक उदयस्थान में तेरानवें और नवासी प्रकृतिक इस प्रकार दो-दो सत्तास्थान होते हैं । इस प्रकार देशविरत गुणस्थान में पच्चीस से तीस तक के पांच उदयस्थानों में चार-चार सत्तास्थान और इकत्तीस प्रकृतियों के उदय में दो सत्तास्थान, इस प्रकार कुल वाईस सत्तास्थान होते हैं । इस प्रकार से देशविरतगुणस्थान के बंधादि स्थान और उनका संवेध जानना चाहिये । सुगमता से समझने के लिये जिसका प्रारूप इस प्रकार है देशविरत गुणस्थान में नामकर्म के बंधादि स्थानों के संबंध का प्रारूप बंघस्थान २८ प्र. २६ प्र. योग २ उदयस्थान २५ प्र. २७,, २८ " २६ " ३० ३१ 11 २६,, २७, ११ " २८ १ २६ " ३० Jain Education International " सतास्थान २,८८ प्र ६२, ८८ ९२,८८ 33 ६२,८८ २,८८ ६२, ८८ ६३, ८६ ६३, ८६ ६३ ८६ ६३, ८६ ६३, ८६ २२ " For Private & Personal Use Only " 21 37 11 33 37 " 17 10 www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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