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________________ पंचसंग्रह : १० मोहनीय का क्षय करने के बाद तेईस प्रकृतिक और मिश्रमोहनीय का क्षय करने के बाद बाईस प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । उन दोनों का अवस्थान काल अन्तमुहूर्त से अधिक नहीं होता है। इसका कारण यह है कि मिथ्यात्वमोहनीय का क्षय करने के बाद अवश्य ही अन्तमुहूर्त के बाद मिश्रमोहनीय का और उसके बाद सम्यक्त्वमोहनीय का क्षय करता है। जिससे तेईस और बाईस प्रकृति की सत्ता अन्तमुहूर्त से अधिक काल होती ही नहीं है। उनके अतिरिक्त शेष रहे नौवें गुणस्थान के तेरह से लेकर एक प्रकृतिक सत्तास्थानों में से प्रत्येक का भी अन्तमुहूर्त से अधिक काल होता ही नहीं है। क्योंकि नौवें गुणस्थान का काल ही अन्तर्मुहूर्त है । एक प्रकृतिक सत्तास्थान वाले दसवें गुणस्थान का काल भी अन्तर्मुहूर्त ही है। जिससे तेरह से लेकर एक प्रकृतिक तक के सभी सत्तास्थानों का काल अन्तर्मुहुर्त जानना चाहिये। तथा छब्बीस प्रकृतिक सत्तास्थान का अभव्य जीवापेक्षा अनादि-अनन्त और अनादि मिथ्यादृष्टि भव्य जीवापेक्षा अनादि-सान्त अवस्थान काल है। इस प्रकार सत्तास्थानों की काल प्ररूपणा जानना चाहिये और इसके पूर्ण होने से मोहनीय की वक्तव्यता भी पूर्ण हुई समझना चाहिये। नामकर्म की संवेध प्ररूपणा अब क्रमप्राप्त नामकर्म के बंधादिस्थानों के विचार करने का अवसर है। लेकिन उससे पूर्व बंधादिस्थानों का सरलता से बोध करने के लिये जिन प्रकृतियों के साथ नामकर्म की बहुत-सी प्रकृतियां बंध अथवा उदय में प्राप्त होती है, उनका निर्देश करने के लिये गाथा सूत्र कहते हैं• अपज्जत्तगजाई पज्जत्तगईहि पेरिया बहुसो। बंधं उदयं च उति सेसपगइउ नामस्त ॥४७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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