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________________ १०८ पंचसंग्रह : १० I पच्चीस और छब्बीस प्रकृतिक तथा 'य-च' कार से पूर्वोक्त मनुष्यतिर्यंचगति योग्य उनतीस और तीस प्रकृतिक इस प्रकार चार बंधस्थान बांधते हैं । उनमें से बादर पर्याप्त पृथ्वी अप् और प्रत्येक. वनस्पति में उत्पन्न होने वाले पच्चीस प्रकृतियों को बांधते हैं तथा आतप के साथ बांधने पर वही पच्चीस प्रकृतिक छब्बीस प्रकृतिक होता है । उस छब्बीस प्रकृति रूप बंधस्थान को खर पर्याप्त बादर पृथ्वीकाययोग्य बंध करते बांधते हैं। उनतीस और तीस प्रकृति रूप दोनों बंधस्थानों का विचार नारकों की तरह समझना चाहिये । क्योंकि देव भी गर्भंज पर्याप्त तियंच और मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं । उनमें से तियंच में उत्पन्न होते उनतीस प्रकृतिक और उद्योत के साथ तीस प्रकृतिक तथा मनुष्य में उत्पन्न होते उनतीस प्रकृतिक एवं तीर्थंकर नाम के साथ तीस प्रकृतिक बंधस्थान को बांधते हैं । इस प्रकार अमुक अमुक गति में वर्तमान जीवों के बंधस्थानों के बंध को जानना चाहिये । अब यह स्पष्ट करते हैं कि अमुक किसी गति योग्य बंध करते नामकर्म के कितने और कौन से बंधस्थान बंधते हैं । प्रत्येक गतियोग्य नामकर्म के बंधस्थान अडवीस नरयजोग्गा अडवीसाई सुराण चत्तारि । तिगपण छब्बीसेगिदियाण तिरिमणुय बंधतिगं ॥ ५७ ॥ T शब्दार्थ - अडबीस - अट्ठाईस प्रकृतिक, नरयजोग्गा - नरकप्रायोग्य, अडवीसाई - अट्ठाईस प्रकृतिक आदि, सुराण - देव प्रायोग्य, चत्तारि - चार, तिगपणछब्बीस-तीन, पांच और छह अधिक बीस, एगिंदियाण - एकेन्द्रिय -तीन बंधस्थान योग्य, तिरिमण्य - तिर्यंच और मनुष्य योग्य, बंधतिगं गाथार्थ - अट्ठाईस प्रकृतिक नरकगति प्रायोग्य तथा अट्ठाईस प्रकृतिक आदि चार देवगति प्रायोग्य, तीन, पांच और छह अधिक बीस ( तेईस, पच्चीस, छब्बीस) प्रकृतिक एकेन्द्रिय योग्य और मनुष्य, तिर्यंच के योग्य ( पच्चीस, उनतीस और तीस प्रकृतिक) तीन बंधस्थान हैं | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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