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सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५६ प्रकृतिक ये तीन बंधस्थान बांधता है । नरक में उत्पन्न होता तद्योग्य अट्ठाईस प्रकृतिक स्थान का बंध करता है । देवगति में उत्पन्न होने वाला अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकत्तीस प्रकृतिक इस तरह चार बंधस्थानों को बांधता है । क्षपक और उपशम श्रेणि में वर्तमान एक प्रकृतिक बंधस्थान को बांधता है तथा तिर्यंच पंचेन्द्रिययोग्य पच्चीस, उनतीस, तीस प्रकृतिक तथा मनुष्यगतियोग्य पच्चीस, उनतीस प्रकृतिक, इस प्रकार प्रकृतियों का बंध करता है। इस प्रकार मनुष्यगति में वर्तमान यथायोग्य सभी बंधस्थानों को बांधता है। ____ अब तिर्यंचगति में बंधयोग्य बंधस्थानों को बतलाते हैं-'तिरियगईए य छ आइमा बंधा' अर्थात् तिर्यंचगति में वर्तमान आदि के तेईस, पच्चीस, छब्बीस, अट्ठाईस, उनतीस और तीस प्रकृतिक इस प्रकार यथासंभव छह बंधस्थानों को बांधता है । क्योंकि तिर्यंच भी चारों गतियों में उत्पन्न होते हैं। जिससे चारों गतियोग्य उक्त बंधस्थानों का बंध होता है । मात्र तीर्थंकर और आहारकद्विक के साथ देवगति योग्य इकत्तीस प्रकृतिक और श्रेणियोग्य एक प्रकृतिक बंधस्थान इन दो बंधस्थानों का बंध तिर्यंचों के संभव नहीं है। क्योंकि उनमें चारित्र और श्रेणि का अभाव है।
नरकगति में बंधयोग्य स्थान इस प्रकार हैं-'नरए गुणतीस तीसा' अर्थात् नरकगति में उनतीस और तीस प्रकृतिक, इन मनुष्य
और तिर्यंचगति योग्य दो बंधस्थानों का बंध होता है। क्योंकि 'नारक अवश्य पर्याप्त संज्ञी तिर्यंच और मनुष्य में ही उत्पन्न होते हैं। उन दोनों के योग्य उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान है तथा जो नारक मरकर श्रेणिक की तरह तीर्थकर होंगे वे तीर्थकर नाम सहित मनुष्यगति योग्य तीस प्रकृतिक रूप बंधस्थान का बंध करते हैं।
देवगति में बंधयोग्य बंधस्थान इस प्रकार हैं-'पंचछव्वीसा य देवेसु" अर्थात् देवगति में वर्तमान जीव बादर पर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य
१. उद्योत के साथ तिर्यंचगतियोग्य भी तीस प्रकृतियों को बांधते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only
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