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सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५७,५८
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विशेषार्थ - यहां चतुर्गति योग्य नामकर्म के बंधस्थानों का निरूपण किया है । इसका प्रारंभ किया है नरकगति से कि अट्ठाईस प्रकृतिक बंधस्थान नरकगतियोग्य है- 'अडवीस नरयजोग्गा ।' यानि नरकगतियोग्य बंध करने पर अट्ठाईस प्रकृति रूप नामकर्म का बंधस्थान है । तथा
देवगतियोग्य बंध करने पर 'अडवीसाई सुराण चत्तारि - 'अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकत्तीस प्रकृतिक इस प्रकार चार बंधस्थान बंधते हैं । तथा—
एकेन्द्रिययोग्य बंध करने पर तेईस, पच्चीस और छब्बीस प्रकृतिक ये तीन बंधस्थान बंधते हैं - 'तिगपणछ्व्वीसेगिंदियाण' और द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्यगति योग्य बंध करने पर पच्चीस, उनतीस और तीस प्रकृतिक इस तरह तीनतीन बंधस्थान बंधते हैं ।
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इन बंधस्थानों में गर्भित प्रकृतियों के नाम आगे कहे जा रहे हैं । यहां तो बंधस्थानों की सूचना मात्र दी है ।
अब गुणस्थानों में बंधस्थानों का विचार करते हैं ।
गुणस्थानों में नामकर्म के बंधस्थान
मिच्छम्मि सासणासु तिअट्ठवोसाइ नामबंधाओ । छत्तिष्णि दोति दोदो चउपण सेसेसु जसबंधी ॥ ५८ ॥
शब्दार्थ -- मिच्छम्मि सासणासु - मिथ्यात्व और सासादन आदि में, तिअवीसाइ - तेईस और अट्ठाईस प्रकृतिक आदि नामबंधाओ - नामकर्म के बंधस्थान, छत्तिणि- छह, तीन, दोति दो, तीन, बोदोटो, दो, चउपण चार, पांच, सेसेसु - शेष गुणस्थानों में, जसबंधो - यशःकीर्ति का बंध |
गाथार्थ - मिथ्यात्व और सासादन आदि में अनुक्रम से तेईस आदि और अट्ठाईस आदि छह, तीन, दो, तीन, दो, दो, चार और पांच बंधस्थान होते हैं और शेष गुणस्थानों में यशः कीर्ति का ही बंध होता है |
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