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________________ पंचसंग्रह : १० विशेषार्थ - गुणस्थानों में नामकर्म के बंधस्थानों का निर्देश किया है । जिसका यथाक्रम से स्पष्टीकरण इस प्रकार है ११० 1 मिथ्यात्व गुणस्थान में तेईस, पच्चीस, छब्बीस, अट्ठाईस, उनतीस और तीस प्रकृति रूप नामकर्म के छह बन्धस्थान होते हैं । इसका कारण यह है कि मिथ्यादृष्टि चारों गति वाले सभी जीव होते हैं और चारों गतियोग्य बंध करते हैं, जिससे उपर्युक्त बंधस्थान संभव हैं । इकत्तीस और एक प्रकृतिक बंधस्थान इस गुणस्थान में में इसलिये संभव नहीं है कि इकत्तीस प्रकृतियों का बंध सातवें और आठवें तथा एक प्रकृति का बंध आठवें गुणस्थान में होता है । ऐसा होने से मिथ्यात्व गुणस्थान में इन दो के सिवाय शेष बंधस्थान माने हैं । सासादन गुणस्थान में अट्ठाईस, उनतीस और तीस प्रकृतिक ये तीन बंधस्थान होते हैं । उनमें से सासादन गुणस्थान में रहते पर्याप्त संज्ञी तिर्यंच अथवा मनुष्य को देवगतियोग्य प्रकृतियों का बंध होने पर अट्ठाईस प्रकृतिक तथा देव अथवा नारक को तिर्यंच अथवा मनुष्यगति योग्य बंध होने पर उनतीस प्रकृतिक और उद्योतनाम के साथ तिर्यंचगतियोग्य बंध करने पर तीस प्रकृतिक इस प्रकार तीन बंधस्थान होते हैं । 2 ''' सम्यग्मथ्यादृष्टि गुणस्थान में अट्ठाईस और उनतीस प्रकृतिक ये दो बंधस्थान होते हैं । उनमें से पर्याप्त संज्ञी तिर्यंच अथवा मनुष्य को देवगतियोग्य बंध करते अट्ठाईस प्रकृतिक और देव अथवा नारक को मनुष्यगति योग्य बंध करने पर उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान होता है । तीसरा गुणस्थान पर्याप्त अवस्था में और संज्ञी को ही होता है । १. अपर्याप्त अवस्था में पहले दूसरे गुणस्थान में नरक या देवगति योग्य बंध नहीं होता है । २ दूसरे गुणस्थान में मनुष्य या तिर्यंच को भी मनुष्य या तियंचगति योग्य बंध हो सकता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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