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________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५८ १११ देव और नारक मनुष्यगतियोग्य और मनुष्य तथा तिथंच देवगति योग्य ही बंध करते हैं। ___ अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में अट्ठाईस, उनतीस और तीस प्रकृतिक ये तीन बंधस्थान होते हैं। यह गुणस्थान चारों गति के संज्ञी जीवों के कारण अपर्याप्त और पर्याप्त अवस्था में होता है । जिससे यथायोग्य उक्त बंधस्थान संभव हैं। उनमें से तिर्यंच अथवा मनुष्य को देवगतियोग्य बंध करने पर अट्ठाईस प्रकृतिक और मात्र मनुष्यों को तीर्थकर नाम के साथ देवगतियोग्य बंध करने पर उनतीस प्रकृतिक, देव व नारकों के मनुष्यगतियोग्य बंध करने पर उनतीस प्रकृतिक और तीर्थंकर नाम के साथ बांधने पर उनको तीस प्रकृतिक बंधस्थान होता है। देशविरत और प्रमत्तसंयत इन दो गुणस्थानों में अट्ठाईस और उनतीस प्रकृतिक ये दो-दो बंधस्थान होते हैं। उनमें देवगतियोग्य बंध करने पर देशविरत मनुष्य और तिर्यंचों के अट्ठाईस प्रकृतिक तथा तीर्थकर नाम के साथ देवगतियोग्य बंध करने पर मनुष्य को उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान होता है। __ प्रमत्त गुणस्थान में भी यही दो बंधस्थान होते हैं परन्तु मनुष्यों के ही । क्योंकि प्रमत्तसंयत आदि गुणस्थान मनुष्यगति में ही होते हैं। साथ ही यह भी समझना चाहिये कि संख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यंचों के ही प्रथम पाँच गुणस्थान होते हैं । भोगभूमिजों के तो आदि के चार गुणस्थान होते हैं तथा तीर्थंकर नाम का बंध तिर्यंच करते नहीं हैं। जिससे तीर्थंकर नाम के साथ के किसी भी बंधस्थान का तिर्यंचगति में बंध नहीं होता है। इसीलिये पाँचवें गुणस्थान में तिर्यंच को अट्ठाईस प्रकृतिक रूप एक बंधस्थान बताया है। १ अपर्याप्त अवस्था में नया सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता है, परन्तु पूर्वजन्म का लाया हुआ हो सकता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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