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पंचसंग्रह : १० कदाचित् यह कहा जाये कि आहारकद्विक का बंध संयम निमित्तक है और संयम-सर्वविरत चारित्र प्रमत्तसंयत को भी है, तो फिर प्रमत्तसंयत को आहारकद्विक का बंध संभव होने से देवगतिप्रायोग्य आहारद्विक सहित तीस प्रकृतिक बंधस्थान क्यों नहीं बताया है ? तो इसका उत्तर यह है कि अप्रमत्तसंयत से प्रमत्तसंयत का संयम मंद होने से प्रमत्तसंयत का चारित्र आहारकद्विक के बंध में हेतु नहीं है । क्योंकि अत्यन्त विशुद्ध अप्रमत्तभाव का चारित्र ही आहारकद्विक के बंध में हेतु है। प्रमत्तसंयत को वैसे विशिष्ट चारित्र का अभाव होने से उसे आहारकद्विक के साथ देवगतिप्रायोग्य तीस प्रकृतिक बंधस्थान का अभाव है। ___ अप्रमत्तसंयत को अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकत्तीस प्रकृतिक ये चार बंधस्थान होते हैं। उनमें आहारकद्विक और तीर्थंकरनाम बिना देवगतियोग्य बंध करने पर अट्ठाईस प्रकृतिक, तीर्थंकरनाम के साथ बांधने पर उनतीस प्रकृतिक, आहारद्विक के साथ बाँधने पर तीस प्रकृतिक और आहारकद्विक व तीर्थकरनाम के साथ अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध करने पर इकतीस प्रकृतिक बंधस्थान होता है।
अपूर्वकरण गुणस्थान से अट्ठाईस, उनतीस, तीस, इकत्तीस और एक प्रकृतिक ये पाँच बांधस्थान होते हैं। उनमें अट्ठाईस आदि चार बंधस्थान तो अप्रमत्तसंयत गुणस्थान की तरह समझना चाहिये
और पाँचवाँ बंधस्थान आठवें गुणस्थान के छठे भाग में नामकर्म की तीस प्रकृतियों का बंधविच्छेद होने के बाद एक यशःकीर्ति नाम के बंध रूप है। __ शेष रहे अनिवृत्तिबादरसंपराय और सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में एक यशःकीति नाम का बंध होता है । यहाँ अतिविशुद्ध परिणाम होने के कारण नामकर्म की अन्य कोई भी प्रकृति नहीं बंधती है।
यहाँ प्रश्न हो सकता है कि नौवें, दसवें गुणस्थान में अतिविशुद्ध अध्यवसाय होने के कारण तीर्थंकरनाम, आहारकद्विक आदि जैसी पुण्य प्रकृतियों का बंध क्यों नहीं होता है ? अतिविशुद्ध परिणाम
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