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पंचसंग्रह : १०
गाथार्थ - ज्ञानावरण और अंतराय का बंध सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान पर्यन्त तथा उदय और सत्ता क्षीणमोहगुणस्थान पर्यन्त होती है । पहले, दूसरे, चौथे और सातवें गुणस्थान तक अनुक्रम से नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देवायु का बंध होता है ।
विशेषार्थ -- ज्ञानावरण और अंतराय इन दोनों कर्मों की पाँच-पाँच प्रकृतियों का बंध सूक्ष्मसंप रायगुणस्थान पर्यन्त ही होता है'नाणंतराय बंधा आसुमं ।' इन दोनों कर्मों की पाँच-पाँच प्रकृतियों का एक साथ बंध होने एवं एक साथ ही बंधविच्छेद होने से पाँच-पाँच प्रकृति रूप एक-एक ही बंधस्थान होता है तथा दोनों कर्मों की पाँचों प्रकृतियों का उदय एवं सत्ता क्षीणमोह पर्यन्त होती है, आगे के गुणस्थानों में नहीं । इस प्रकार उदय और सत्ता में पाँचों प्रकृतियाँ साथ ही होने से और साथ ही क्षय होने से इन दोनों कर्मों का उदयस्थान एवं सत्तास्थान भी पाँच-पाँच प्रकृति रूप ही होता है ।
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आयुकर्म के विषय में गुणस्थानापेक्षा बंध, उदय और सत्ता सम्बन्धी स्पष्टीकरण इस प्रकार है- पहले मिथ्यादृष्टिगुणस्थानपर्यन्त नरकायु का, तिर्यंचायु का सासादन गुणस्थान पर्यन्त, मनुष्यायु का चतुर्थ गुणस्थान पर्यन्त और देवायु का सातवें अप्रमत्तसंयतगुणस्थान पर्यन्त बंध होता है तथा उदय एवं सत्ता विषयक स्पष्टीकरण इस प्रकार है
नारयसुराउ उदओ चउ पंचम तिरि मणुस्स चोद्दसमं । उवसंता
आसम्म देसजोगी
संतयाऊणं ॥८॥ शब्दार्थ –नारयसुराउ - नरकायु और देवायु का, उदओ— उदय, चउ चौथे गुणस्थान, पंचम - पांचवें, तिरि-तिर्यंचायु, मणुस्स - मनुष्यायु, चोद्दसमं -- चौदहवें गुणस्थान, आसम्मदेसजोगी - सम्यक्त्व, देशविरत, अयोगिकेवली, उवसंता - उपशांतमोह, संतयाऊणं - आयु की सत्ता ।
गाथार्थ - नरकायु और देवायु का चौथे गुणस्थान तक, तिर्यंचायु का पाँचवें गुणस्थान तक और मनुष्यायु का चौदहवें गुणस्थान तक उदय होता है तथा नरकायु की सम्यक्त्व गुणस्थान तक, तिर्यंचायु
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