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सप्ततिका - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७
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एक की सत्ता नष्ट होती है तब चरम समय में एक की सत्ता होती है । इस प्रकार वेदनीय में दो और एक प्रकृतिक यह दो सत्तास्थान होते हैं ।
आयुकर्म में परभवायु का बंध न होने तक एक की सत्ता और परभवायु का बंध होने के पश्चात् बंधी हुई आयु का जब तक उदय न हो, वहाँ तक आयुद्वय की सत्ता होती है ।
गोत्रकर्म में तेजस्कायिक, वायुकायिक जीव उच्चगोत्र की उद्वलना करे तब अथवा अयोगिकेवली गुणस्थान के द्विचरम समय में नीचगोत्र का क्षय करे तब एक (उच्च) गोत्र की सत्ता होती है । इसके अतिरिक्त सर्वदा दोनों गोत्र कर्म प्रकृतियों की सत्ता होती है ।
उक्त तीनों कर्मों के बंध एवं उदय में तो उनकी एक-एक प्रकृति का ही बंध और उदय होने से एक-एक ही स्थान होता है । क्योंकि उन कर्मों की एक साथ दो, तीन प्रकृतियों का बंध या उदय नहीं होता है ।
ज्ञानावरण और अंतराय इन दोनों का बंध, उदय और सत्ता में पाँच-पाँच प्रकृति रूप एक ही स्थान होता है । क्योंकि इन दोनों कर्मों की पाँचों प्रकृतियाँ एक साथ बंध, उदय और सत्ता को प्राप्त होती है ।
अब उक्त स्थानों के सम्बन्ध में कुछ विशेष विचार करते हैं— नाणंतरायबंधा आसुहुमं उदयसंतया खोणं । आइमदुगचउसत्तम नारयतिरिमणुसुराऊणं ॥ ७॥
शब्दार्थ-नाणंतराय बंधा - ज्ञानावरण और अंतराय का बंध, आसुहुमं - सूक्ष्म संप रायगुणस्थानपर्यन्त, उदयसंतथा - उदय और सत्ता, खोणं - क्षीणमोहगुणस्थान तक, आइमदुगच उत्तम - पहले, दूसरे, तीसरे, चौथे और सातवें गुणस्थान तक नारयतिरिमणुसुराऊणं - नारक, तियंच, मनुष्य और देवायु
का ।
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