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________________ १८ पंचसंग्रह : १० तो सात और भावमन न होने से केवली भगवन्तों को संज्ञा में ग्रहण न करें तो प्रथम पाँव संवेध विकल्प संभव हैं। शेष तेरह जीवस्थानों में आयु के बन्धकाल में आठ का बन्ध, आठ का उदय और आठ की सत्ता तथा शेषकाल में सात आठ का उदय, आठ की सत्ता ये दो-दो भंग घटित होने से कुल छव्वीस । इस तरह चौदह जीवस्थानों संबन्धी कुल ७+२६-३३ अथवा ५+२६= ३१ संवेध विकल्प होते हैं । इस प्रकार मूल कर्म प्रकृतियों सम्बन्धी बंध, उदय और सत्ता विषयक संवेध निरूपण करने के पश्चात् अब मूल कर्मों का स्थान रूप में विचार करते हैं। मोहनीय, नाम कर्म व्यतिरिक्त शेष छह कर्मों के स्थान दो संतट्ठाणाई बंधे उदए य ठाणयं एक्कं । वेणियाउयगोए एगं नाणंतराएसु ॥६॥ शब्दार्थ- दो-दो, संतट्ठाणाई-सत्तास्थान, बंधे उदए-बंध और उदय में, य-और, ठाणयं-स्थान, एक्कं --एक, वेयणियाउयगोए---वेदनीय, आयु और गोत्र कर्म में, एर्ग--एक, नाणंतराएसु-ज्ञानावरण और अंतराय कर्म में । गाथार्थ-वेदनीय, आयु और गोत्र कर्म में सत्तास्थान दो और बंध तथा उदय में एक-एक स्थान है । ज्ञानावरण और अंतराय का तीनों में एक स्थान होता है । विशेषार्थ-एक साथ दो, तीन आदि प्रकृतियों के समुदाय को बंधादि में होने को स्थान कहते हैं। वेदनीय, आयु और गोत्र कर्म में से प्रत्येक के दोप्रकृतिक, एकप्रकृतिक इस प्रकार दो-दो सत्तास्थान होते हैं। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-वेदनीय की दोनों प्रकृतियाँ अयोगिकेवली के द्विचरम समय तक सत्ता में होती हैं और द्विचरम समय में दोनों में से किसी भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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