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सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६
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अयशःकीर्ति का परावर्तन करने से होने वाले आठ, इसी प्रकार के मनुष्यों के आठ और देवों के आठ, कुल मिलाकर इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान के बत्तीस भंग होते हैं ।
चौबीस प्रकृतियों का उदय एकेन्द्रिय में उत्पन्न मात्र को होता है । यहाँ भी बादर पर्याप्त के साथ यशः कीर्ति अयशः कीर्ति का परावर्तन करने पर संभव जो दो भंग हैं वही होते हैं । क्योंकि सासादन सम्यग् - दृष्टि के सूक्ष्म, साधारण एवं तेज व वायुकाय में उत्पन्न नहीं होने से सूक्ष्मादि के साथ होने वाले कोई भी भंग नहीं होते हैं ।
पच्चीस प्रकृतियों का उदय देव में उत्पन्नमात्र को होता है । यहाँ आय - अनादेय, सुभग दुर्भग और यशः कीर्ति अयशः कीर्ति का परावर्तन करने से संभव आठ भंग होते हैं ।
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छब्बीस प्रकृतियों का उदय विकलेन्द्रिय तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य में उत्पन्नमात्र को होता है । उनमें से विकलेन्द्रियों के प्रत्येक के दो-दो कुल छह, तिर्यंच पंचेन्द्रिय के छह संहनन, छह संस्थान, सुभग- दुभंग, आदेय - अनादेय और यशः कीर्ति अयशः कीर्ति के परावर्तन से होने वाले दो सौ अठासी और इसी प्रकार से होने वाले मनुष्य के दो सौ अठासी, कुल मिलाकर पाँच सौ बयासी भंग होते हैं । अपर्याप्त नामकर्म के उदय के साथ होने वाला जो एक भंग, वह यहाँ संभव नहीं है । क्योंकि अपर्याप्त नामकर्म के उदय वाले जीवों में सासादनगुणस्थान वाले उत्पन्न नहीं होते हैं । जिससे अपर्याप्त नामकर्म के साथ होने वाले भंगों के सिवाय उपर्युक्त शेष भंग संभव हैं ।
सासादन सम्यग्दृष्टि को सत्ताईस और अट्ठाईस प्रकृतिक ये दो उदयस्थान नहीं होते हैं । क्योंकि वे उत्पन्न होने के बाद अन्तर्मुहूर्त बीतने पर होते हैं और सासादन भाव तो उत्पन्न होने के बाद कुछ कम छह आवलिका मात्र काल ही होता है । इसलिये ये दो उदयस्थान सासादनगुणस्थान में घटित नहीं होते हैं ।
उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान समस्त पर्याप्तियों से पर्याप्त देवों और नारकों को होता है । उनतीस प्रकृतियों के उदय वाले देव या
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