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पंचसंग्रह : १०
मिलाकर छियानवे सौ आठ (६६०८ ) भंग होते हैं । एतद् विषयक गाथा इस प्रकार है
अट्ठ सया चोसट्ठी बत्तीससया य सासणे भेया । अट्ठावीसाइसु हिय छत्र उइ ॥
अर्थात् सासादनगुणस्थान में अट्ठाईस प्रकृतियों के बंधस्थान के आठ, उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान के चौंसठ सौ और तीस प्रकृतिक बंधस्थान के बत्तीस सौ भंग होते हैं और इनका कुल जोड़ छियानवे सौ आठ है । अब सासादनगुणस्थान के उदयस्थानों का निर्देश करते हैं कि वे इक्कीस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, उनतीस, तीस और इकत्तीस प्रकृतिक, इस प्रकार सात हैं । उनमें से-
इक्कीस प्रकृतियों का उदय पर्याप्त नामकर्म के उदय वाले बादर पृथ्वी, जल और प्रत्येक वनस्पति रूप एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी -संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य और देवों के होता है । इन सभी जीवों के अपर्याप्तावस्था में शरीरपर्याप्ति पूर्ण होने के पहले सासादन होता है । सासादनभाव को लेकर कोई भी जीव नरक में उत्पन्न नहीं होता है, जिससे तद् विषयक इक्कीस प्रकृतियों का उदय नहीं होता है ।
इक्कीस प्रकृतियों के उदय में एकेन्द्रिय के बादर पर्याप्त के साथ यशः कीर्ति और अयशः कीर्ति का परावर्तन करने से संभव दो भंग यहाँ होते हैं, अन्य कोई भंग नहीं होता है। क्योंकि सूक्ष्म और अपर्याप्त में सासादन सम्यक्त्वी उत्पन्न नहीं होता है । इसी कारण विकलेन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्यों को भी अपर्याप्त नामकर्म के साथ ही जो एक-एक भंग होता है वह सासादन में नहीं होता है, परन्तु शेष भंग होते हैं । जिससे एकेन्द्रिय के दो, विकलेन्द्रिय के दो-दो कुल छह तथा तिर्यंच पंचेन्द्रिय के सुभग- दुभंग, आदेय- अनादेय और यशः कीर्ति
१ दिगम्बर साहित्य में भी सासादन गुणस्थान सम्बन्धी सात उदयस्थान बताये हैं | देखो पंचसंग्रह सप्ततिका अधिकार गाथा ४०४ ।
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