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सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा १५३, १४५, १५५
औदारिकमिश्रयोगी को इन दो आयु का बंध सम्भव है ।
योगमार्गणा के भेद कार्मणकाययोग में तथा आहारकमार्गणा के भेद अनाहारक में पूर्वोक्त छह प्रकृतियों के साथ दो आयु को मिलाने पर आठ प्रकृति बंध के अयोग्य हैं । अर्थात् कार्मणकाययोगी और अनाहारक के आहारकद्विक, नरकत्रिक, देवायु, मनुष्यायु और तियंचायु इन आठ प्रकृतियों का बंध नहीं होता है ।
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आहारककाययोग में वर्तमान सत्तावन और आहारकमिश्रयोग में वर्तमान त्रेसठ प्रकृतियों का बंध करते हैं। जिसका अर्थ यह हुआ कि ये दोनों अनुक्रम से त्रेसठ और सत्तावन प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं । इसका तात्पर्य यह है
आहारकमिश्र काययोग में वर्तमान आदि की बारह कपाय, मिथ्यात्वमोहनीय, तिर्यंचद्विक, मनुष्यद्विक, तियंचायु, मनुष्यायु, दुभंग, दुःस्वर, अनादेय, स्त्यानद्धित्रिक, विकलत्रिक, सूक्ष्म, साधारण, अपर्याप्त, नरकत्रिक, संहननषटक्, प्रथम के बिना अन्तिम पाँच संस्थान, औदारिकद्विक, आहारकद्विक, स्थावर, एकेन्द्रियजाति, आतप, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, उद्योत, नीचगोत्र, और अशुभ विहायोगति इन सत्तावन प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं तथा आहारकशरीर में वर्तमान प्रमत्त या अप्रमत्त संयत उक्त सत्तावन तथा अस्थिर, अशुभ, अयशः कीर्ति, अरति शोक और असातावेदनीय इन छह प्रकृतियों को भी नहीं बांधते हैं । इसलिये कुल मिलाकर त्रेसठ प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं ।
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लेश्यामार्गणा के तेज आदि तीन लेश्याओं के बंध के विचार का यह रूप है कि तेजोलेश्या के पहला, दूसरा और तीसरा (मंद, तीव्र, अतितीव्र) इस प्रकार विशुद्धि की अपेक्षा यह तीन विभाग हैं । उनमें तेजोलेश्या के पहले भाग को पार कर चुके यानि दूसरे और तीसरे भाग में वर्तमान (तीव्र और अतितीव्र तेजोलेश्या वाले) जीव नरकत्रिक, विकलत्रिक, सूक्ष्मत्रिक, इन नौ प्रकृतियों का बंध नहीं करते
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