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पंचसंग्रह : १०
हैं। क्योंकि तेजोलेश्या वाले मनुष्य और तिर्यच नरकादि में उत्पन्न नहीं होते हैं। देव भी उक्त नौ प्रकृति के उदय वाले जीवों में उत्पन्न नहीं होते हैं। जिससे तेजोलेश्या वालों के इन प्रकृतियों के बंध का निषेध किया है।
शुद्ध पद्मलेश्या वाले जीव एकेन्द्रिय, और आतप सहित उक्त नौ प्रकृतियों को नहीं बांधते हैं। अर्थात् बारह प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं । इसका कारण यह है कि पद्मलेश्या वाले मनुष्य या तिर्यंच देवों में ही उत्पन्न होते हैं। एकेन्द्रियादि में उत्पन्न नहीं होते हैं तथा पद्मलेश्या युक्त देव भी एकेन्द्रियादि में उत्पन्न नहीं होते हैं, जिससे शुद्ध पद्मलेश्या वाले के उक्त बारह प्रकृतियों के बंध का निषेध किया है।
शुद्ध शुक्ललेश्या वाले जीव के उक्त बारह प्रकृतियों में तिर्यंचत्रिक और उद्योत नाम को मिलाने पर कुल सोलह प्रकृतियों का बंध नहीं होता है। क्योंकि परमविशुद्ध शुक्ललेश्या वाले तिर्यंच, मनुष्य और देव उक्त प्रकृतियों के उदय वाले जीवों में उत्पन्न नहीं होते हैं, इसलिये शुद्ध शुक्ललेश्या वाले के इन सोलह प्रकृतियों के बंध का निषेध किया है। ___ इस प्रकार से प्रसक्तानुप्रसक्त समस्त अभिधेय का निरूपण करने के अनन्तर आचार्य उपसंहार रूप में अन्त मंगल करते हुए ग्रन्थ पूर्ण करने का संकेत करते हैं
सुयदेविपसायाओ पगरणमेयं समासओ भणियं । समयाओ चंदरिसिणा समईविभवाणुसारेण ॥१५६॥ शब्दार्थ-सुयदेविपसायाओ-श्रुतदेवी की कृपा से, पगरणमेयं-यह प्रकरण, समासओ-संक्षेप में, भणियं-कहा है, समयामो-सिद्धान्त में से, चंदरिसिणा- चन्द्रर्षि के द्वारा, समईविमवाणुसारेण-अपने बुद्धि वैभव के अनुसार।
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