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________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा १५६ ३४५ गाथार्थ - श्रुतदेवी की कृपा से अपने बुद्धिवैभव के अनुसार सिद्धान्त में से संक्षिप्त करके चन्द्रषि द्वारा यह प्रकरण कहा गया है । विशेषार्थ - गाथा में ग्रन्थकार ने अपनी लघुता प्रदर्शित करते हुए ग्रन्थ समाप्ति का संकेत किया है द्वादशांग रूप श्रुतदेवी के प्रसाद भक्ति के कारण होने वाले कर्म क्षयोपशम से मैंने - चन्द्रषि ने सिद्धान्त में से दोहन करके इस पंचसंग्रह नामक प्रकरण का कथन किया है । यद्यपि सिद्धान्त में अनेक अर्थों की विस्तार से प्ररूपणा की गई है, लेकिन मेरे द्वारा उन सबका कथन किया जाना शक्य नहीं होने से मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार संक्षिप्त करके इस पंचसंग्रहात्मक प्रकरण में कतिपय अमुक अर्थों पर प्रकाश डाला है । जिससे तत्त्व जिज्ञासु लाभ प्राप्त करें । यही हार्दिक इच्छा है । अन्त में वर्तमान शासनपति श्रमण भगवान महावीर का पुण्य स्मरण करते हुए श्रद्धापूर्वक नमस्कार करता हूँ । इस प्रकार इस सप्ततिका अधिकार की समाप्ति के साथ श्रीमदाचार्य चन्द्रपि महत्तर विरचित पंचसंग्रह ग्रन्थ की वक्तव्यता समाप्त हुई । Jain Education International 11 जैन जयतु शासनम् ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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