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________________ पंचसंग्रह : १० कार्मणकाययोग और अनाहार मार्गणा में वर्तमान दो आयु सहित इनका (पूर्वोक्त छह ) कुल आठ का बंध नहीं करते हैं । आहारककाययोग मार्गणा में वर्तमान सत्तावन और आहारकमिश्र मार्गणा में वर्तमान त्रेसठ प्रकृतियों का बंध करते हैं । ३४२ तेजोलेश्यातीत नरकत्रिक, विकलत्रिक और सूक्ष्मत्रिक इन नौ प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं, पद्म लेश्यातीत एकेन्द्रिय स्थावर और आतप के साथ बारह का तथा शुक्ल लेश्यातीत तियंचत्रिक और उद्योत का भी बंध नहीं करते हैं । विशेषार्थ - गति मार्गणा की उत्तरवर्ती इन्द्रिय और कायमार्गणा के सम्बन्ध में द्रव्य प्रमाण 'नरयतिगं देवतिगं इगिविगलाणं' गाथा द्वारा कहा जा चुका है । शेष मार्गणाओं में मनुष्य की तरह समझना चाहिये । लेकिन उनमें जो विशेष है, उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है श्यामार्गणा के कृष्ण, नील, कापोत इन तीन भेदों में, संयममार्गणा के भेद असंयम में, योगमार्गणा के भेद वैक्रिय और वैक्रियमिश्रमार्गणा में वर्तमान जीव आहारकशरीर और आहारक अंगोपांग नाम का बंध नहीं करते हैं। क्योंकि इन मार्गणाओं में विशिष्ट संयम नहीं होने से आहारकद्विक का बंध नहीं होता है । औदारिक मिश्रयोग में वर्तमान आहारकद्विक, नरकत्रिक और देवायु इन छह प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं । इसका कारण यह है कि औदारिकमिश्रयोग अपर्याप्तावस्था में होता है । उस समय मनःपर्याप्ति से अपर्याप्त होने के कारण देवायु एवं नरकत्रिक के बंधयोग्य अध्यवसाय सम्भव नहीं हैं तथा विशिष्ट संयम की प्राप्ति भी उस समय ..नहीं होती है जिससे आहारकद्विक का भी बंध सम्भव नहीं है । इस लिये औदारिकमिश्रकाययोगी को इन छह प्रकृतियों का बंध नहीं होता है । तियंचायु और मनुष्यायु अल्प अध्यवसाय द्वारा बंधयोग्य हैं । वैसे अध्यवसाय अपर्याप्तावस्था में हो सकने से उस अवस्था में www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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