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________________ पंचसंग्रह : १० विशेषार्थ-गाथा में अनुक्रम से देव और नारकों के उदयस्थान बतलाये हैं। इन दोनों के उदयस्थान तो वही हैं जो पूर्व में विकलेन्द्रियों को बतलाये हैं। लेकिन वे संहनन और उद्योत नाम से रहित जानना चाहिये । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है विकलेन्द्रियों में इक्कीस प्रकृतिक आदि जो छह उदयस्थान पूर्व में कहे हैं, वे सभी उदयस्थान संहनन के उदय बिना के देवों में होते हैं। इसका कारण यह है कि देवों के वैक्रिय शरीर होता है और वैक्रिय शरीर में हड्डियां नहीं होने से संहनन का उदय नहीं होता है। मात्र देवगति आश्रयी विकलेन्द्रिय के उदयस्थान कहने पर कितनीक प्रकृतियों का फेरफार स्वयमेव कर लेना चाहिये। ऐसा करने पर इक्कीस प्रकृतियां इस प्रकार हैं देवगतिद्विक, पंचेन्द्रियजाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग-दुर्भग में से एक, आदेय-अनादेय में से एक, यशःकीर्ति-अयशःकीति में से एक, तैजस, कार्मण, अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, वर्णचतुष्क और निर्माण नाम। इस इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान के सुभग-दुर्भाग, आदेय-अनादेय और यशःकीति-अयश:कीर्ति पद के आठ विकल्प होते है। दुर्भग, अनादेय और अयशःकीति का उदय पिशाचादि को होता शरीरस्थ देव के देवानुपूर्वी कम करके वैक्रिय शरीर वैक्रिय-अंगोपांग, उपघात, प्रत्येक, और समचतुरस्रसंस्थान का उदय मिलाने पर पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहां भी पूर्वोक्त आठ भंग होते हैं। तत्पश्चात् शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त के पराघात और प्रशस्त विहायोगति का उदय मिलाने पर सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहां भी वही आठ भंग होते हैं। देवों के अप्रेशस्त विहायोगति का उदय नहीं होने से तदाश्रित विकल्प भी नहीं होते हैं । इसके बाद उच्छ्वासपर्याप्ति से पर्याप्त को श्वासोच्छ्वास के उदय को मिलाने पर अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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