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________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८४ १६५ उदयस्थान होता है। यहां भंग एक ही होता है । अथवा प्राणापानपर्याप्ति से पर्याप्त को स्वर का उदय होने के पहले किसी को उद्योत का उदय होने से भी उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ भी एक ही भंग होता है और सब मिलाकर उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान के दो विकल्प होते हैं। - इसके बाद भाषापर्याप्ति से पर्याप्त को स्वर सहित उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान में उद्योत का उदय मिलाने पर तीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है और भंग एक ही होता है। तथा सब मिलाकर आहारक शरीरी के पाँच उदयस्थान के सात भंग होते हैं। इस प्रकार से मनुष्ययोग्य नामकर्म के उदयस्थान जानना चाहिये। अब देव और नारक योग्य उदयस्थानों का निरूपण करते हैं। देव और नारक प्रायोग्य उदयस्थान देवाणं सवेवि हु ते एव विगलोदया असंघयणा । संघयणुज्जोयविवज्जिया उ ते नारएसु पुणो ॥४॥ शब्दार्थ-देवाणं-देवों के, सव्वेवि-सभी, हु-अवधारणात्मक अव्यय, ते वि-वही, विगलोदया-विकलेन्द्रियों में उदय होने वाले, असंघयणासंहनन रहित, संघयणुज्जोयविवज्जिया–संहनन और उद्योत से रहित, उऔर, ते-वे, नारएसु-नारकों में, पुणो–पुनः । __गाथार्थ-संहनन बिना के विकलेन्द्रियों के सभी उदयस्थान देवों के भी होते हैं तथा संहनन और उद्योत उदय बिना के वे ही सब नारकों में होते हैं। १ संमूच्छिम मनुष्यों में इक्कीस और छब्बीस प्रकृतिक ये दो ही उदयस्थान होते हैं। उनमें परावर्तमान सभी अशुभ प्रकृति होती हैं । विकल्प नहीं होने से एक-एक भंग होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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