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सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६
२६५ गये नौ ही उदयस्थान होते हैं और सत्तास्थान बानवै, नवासी, अठासी, छियासी, अस्सी और अठहत्तर प्रकृतिका ये छह होते हैं । इनमें इक्कीस प्रकृतियों के उदय में छहों सत्तास्थान होते हैं और उनमें भी इक्कीस प्रकृतियों के उदय में मनुष्ययोग्य उनतीस प्रकृतियों को बांधने पर नवासी प्रकृतिक सत्तास्थान पूर्व में कहे गये अनुसार जिस मनुष्य ने तीर्थकरनाम का बंध किया है और मिथ्यात्वी होकर नरक में गया है । वैसे नारक को समझना चाहिये ।
बानव और अठासी प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान देव, नारक, (एकेन्द्रिय) विकलेन्द्रिय और तिर्यच पंचेन्द्रिय इन सबको होता है । छियासी और अस्सी प्रकृतिक सत्तास्थान एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्यों के होते हैं और अठहत्तर प्रकृतिक सत्तास्थान एकेन्द्रिय और तिर्यंच पंचेन्द्रियों को होता है ।
मनुष्य या तिर्यंचगति योग्य उनतीस प्रकृतियों का बंध करते चौबीस प्रकृतियों के उदयस्थान में वर्तमान एकेन्द्रियों के नवासी प्रकृतिक के सिवाय शेष पाँच सत्तास्थान होते हैं। यह उदयस्थान मात्र एकेन्द्रियों के ही होता है, अन्य किसी को नहीं होता है । इसलिये चौबीस प्रकृतियों के उदयस्थान में वर्तमान एकेन्द्रियों को होता है, यह संकेत किया है।
१. किसी भी तिर्यंच या मनुष्य योग्य बंध करते मनुष्य को बानवे, अठासी,
छियासी, अस्सी प्रकृतिक ये चार सत्तास्थान होते हैं । तिर्यचों के अठहत्तर के साथ पांच होते हैं । नारक को तियंचगति योग्य बंध करने पर बानव और अठासी प्रकृतिक ये दो और मनुष्ययोग्य बंध वरने पर नवासी प्रकृतिक के साथ तीन होते हैं । देवों के मनुष्य, तिर्यंच के योग्य बंध करने पर बानवै, अठासी प्रकृतिक ये दो होते हैं । इसी प्रकार अन्यत्र भी बंध, उदय और सत्तास्थानों के पूर्वापर संबन्ध को ध्यान में रख कर विचार करना चाहिये ,
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