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पंचसंग्रह : १०
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पराघात, उपघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर - अस्थिर में से एक, शुभ-अशुभ में से एक, यश:कीर्ति अयशः कीर्ति में से एक, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और वैक्रियद्विक ।
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इन अट्ठाईस प्रकृतियों को मिथ्यादृष्टि से लेकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक में वर्तमान मनुष्य, तिर्यच यथायोग्य रीति से बांधते हैं । यहाँ स्थिर अस्थिर, शुभ -अशुभ और यश : कीर्ति अयशः कीर्ति का परावर्तन करने पर आठ भंग होते हैं । अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण गुणस्थान के छठे भाग तक भी देवगतियोग्य अट्ठाईस प्रकृतियां बंध सकती हैं, परन्तु वहाँ परावर्तमान पुण्य प्रकृतियों का बंध होने से आठ भंग नहीं होते हैं, किन्तु एक ही भंग होता है ।
इन अट्ठाईस प्रकृतियों में तीर्थंकरनाम को मिलाने पर उनतीस प्रकृतियां होती हैं । इन उनतीस प्रकृतियों को अविरत सम्यग्दृष्टि आदि बांधते हैं । यहाँ भो छठे गुणस्थान तक आठ भंग और आगे एक ही भंग होता है ।
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आहारकद्विक सहित करने पर देवगतियोग्य तीस प्रकृतियां इस प्रकार होती हैं – देवगतिद्विक, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियद्विक, आहारकद्विक, तैजस, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, शुभ, स्थिर, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति और निर्माण । इन तीस प्रकृतियों को अप्रमत्त और अपूर्वकरण गुणस्थान के छठे भाग तक में वर्तमान संयत ही बांधते हैं । इन तीस में परावर्तमान समस्त प्रशस्त प्रकृतियों का ही बंध होने से, एक ही भंग होता है ।
देवगतियोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों में आहारकद्विक और तीर्थंकर नाम इस प्रकार तीन प्रकृतियों को मिलाने से इकत्तीस प्रकृतियां होती हैं । इन इकत्तीस प्रकृतियों का बंध भी अप्रमत्त और अपूर्वकरण के छठे भाग तक में वर्तमान संयत ही करते हैं । यहां भी परावर्तमान
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