SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६४ १२६ समस्त प्रशस्त प्रकृतियों का ही बंध होने से एक ही भंग होता है और देवगतियोग्य चार बंधस्थानों के सब मिलाकर अठारह भंग होते हैं। अब एक विशेष निर्देश करते हैं आठवें गुणस्थान में नामकर्म की तीस प्रकृतियों का बंधविच्छेद होने के बाद से लेकर दसवें गुणस्थान के चरम समय तक एक यश:कीर्तिनाम ही अपने बंधयोग्य परिणाम होने के कारण बंधता है, अन्य किसी भी नामकर्म की प्रकृति का बंध नहीं होता है-'अनियट्टीसुहुमाणं जसकित्ती एस इगि बंधो।' इसका कारण यह है कि किसी भी गतियोग्य बंध आठवें गुणस्थान के छठे भाग तक ही होता है। लेकिन यशःकीर्तिनाम ही एक ऐसी प्रकृति है कि उसके सिवाय अन्य प्रकृतियां तो किसी भी गतियोग्य बंध करने पर ही बंधती है और यशःकीर्तिनाम किसी भी गतियोग्य कर्म-बंध करने पर एवं सभी गतियोग्य प्रकृतियों का बंधविच्छेद होने के बाद भी बंधती है। इस प्रकार से चारों गतियोग्य नामकर्म के बंधस्थानों और उनके भंगों को बतलाने एवं विशेष आवश्यक निर्देश करने के बाद अब यह बतलाते हैं कि नामकर्म की कौन प्रकृति किस गुणस्थान तक बंधती है और किस गुणस्थान में किन प्रकृतियों का बंधविच्छेद होता है। इसको गुणस्थान के क्रम से प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान की प्रकृतियों को बतलाते हैं। मिथ्यात्व गुणस्थान में नामकर्म की बंध एवं विच्छेद योग्य प्रकृतियां साहारणाइ मिच्छो सुहुमायवथावरं सनरयदुगं । इगिविलिदियजाई हुण्डमपज्जत्तछेवढें ॥६४॥ शब्दार्थ-साहारणाइ-साधारण आदि, मिच्छो-मिथ्यादृष्टि, सुहुमायवथावर--सूक्ष्म, आतप, स्थावर, सनरयदुर्ग-नरकद्विक सहित, इगिविगलिंदियजाई-एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जाति, हुण्डमपज्जत-हुण्डसंस्थान, अपर्याप्त, छेवढें-सेवार्तसंहनन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy