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सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २०,२१ दसवां एकप्रकृतिक, इस प्रकार पांच बंधस्थान नौवें गुणस्थान में होते हैं।
इस प्रकार से मोहनीयकर्म के बंधस्थान और गुणस्थानापेक्षा उनका स्वामित्व जानना चाहिये । अब प्रकृतिभेद से उन बंधस्थानों के प्रकारों को बतलाते हैं। प्रकृतिभेद से मोहनीय के बंधस्थानों के प्रकार
हासरइअरइसोगाण बंधया आणवं दुहा सव्वे । वेयविभज्जंता पुण दुगइगवीसा छहा चउहा ॥२०॥ मिच्छाबंधिगवीसो सत्तर तेरो नवो कसायाणं ।
अरईदुगं एमत्ते ठाइ चउक्कं नियटिमि ॥२१॥ शब्दार्थ-हासरइअरइसोगाण-हास्य, रति, अरति, शोक के, बंधयाबंध, आणवं-नौ-प्रकृतिक तक, दुहा--दो प्रकार से, सव्वे-सब, वेयविभज्जंता-वेद से विभाजित करने पर, पुण-पुनः, दुगइगवीसा-बाईस और इक्कीस प्रकृतिक, छहा चउहा-छह और चार प्रकार का है।
मिच्छाबंधिगवीसो—मिथ्यात्व का बंध न होने पर इक्कीस प्रकृतिक, सत्तर तेरो नवो-सत्रह, तेरह और नौ प्रकृतिक, कसायाणं--कषायों के, अरई दुर्ग--अरतिद्विक, पमत्ते-प्रमत्तसंयत गुणस्थान में, ठाइ-रुक जाता है, चउक्कं-(हास्य) चतुष्क, नियटिमि-अपूर्वकरण में, निवृत्ति में ।
गाथार्थ-नौ-प्रकृतिक बंध तक सभी बंध हास्य-रति और अरति-शोक क्रम से बंधने के कारण दो प्रकार के होते हैं। वेद के बंध से विभाजित करने पर बाईस और इक्कीस प्रकृतिक बंध क्रमश: छह और चार प्रकार के हैं।
मिथ्यात्व के अबंध से इक्कीस, अनुक्रम से कषाय के अबंध से सत्रह, तेरह और नौ का बंध होता है। अरतिद्विक का प्रमत्तसंयत गुणस्थान में और (हास्य) चतुष्क का अपूर्वकरण में बंधविच्छेद
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